Book Title: Jinabhashita 2006 01 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ पूजा का सही उच्चारण नहीं करते हैं। उदाहरणार्थ विनयपाठ में 'वीतराग भेंटयो अबै, मेंटो राग कुटेव' के स्थान पर 'वीतराग मेंटो अबै भेंट्यो, राग कुटेव' पढ़ते हैं । जिससे अर्थ का अनर्थ होता है। अशुद्धियों की तरफ ध्यान दिलाने पर वे एक दो बार ही सही पढ़ते हैं किन्तु निरन्तर पूर्व अभ्यास के कारण पुनः अशुद्ध ही पढ़ते रहते हैं। पाठशाला इस प्रकार की अशुद्धियों के परिमार्जन का उपयुक्त स्थान है। कम से कम अगली पीढ़ी तो इस प्रकार की सामान्य अशुद्धियों की आदत से मुक्त होगी क्योंकि पाठशाला में सप्ताह में कम से कम एक बार सभी छात्र/छात्राएँ शिक्षक एवं शिक्षिकाओं के मार्गदर्शन में पूजा करते हैं, जहाँ अशुद्ध उच्चारण की आदत ही नहीं बनती। पाठशाला : मिथ्यात्व से बचाव जैनदर्शन में निदान बंध बहुत बड़ा दोष माना गया है। किन्तु सामान्यतः लोग इस रोग से ग्रस्त हैं । हमारा अमुक कम हो जाएगा तो हम अमुक विधान करेंगे, तीर्थयात्रा करेंगे, दान देंगे, व्रत करेंगे आदि। पाठशाला की शिक्षा में इस दोष के प्रति सजग रहने की शिक्षा दी जाती है। क्योंकि छात्रछात्राएँ परीक्षा में उत्तीर्ण होने की मनोतियाँ मनाते हैं, जिससे निदानबंध होता है। इसीप्रकार अपने विभिन्न कार्यों की सिद्धि के लिये अन्य देवी-देवताओं की पूजा अर्चना एवं व्रत रखने की प्रथा भी सामान्य है। वर्षों से मंदिर में नित्य पूजा करने वाले श्रावकों को अन्य देवी-देवताओं के समक्ष नतमस्तक एवं हाथ जोड़ने की मुद्रा में देखा जा सकता अनेक जैनतीर्थ स्थानों में अन्य देवी-देवताओं के भी मंदिर मठ हैं, लोग दोनों स्थानों पर जाकर अपनी श्रद्धा भक्ति प्रकट कर आराधना करते हैं। पाप क्षीण होने के लिए पवित्र नदियों में डुबकी लगाते हैं। कुछ लोग स्वयं प्रसाद न चढ़ाकर अन्य मतावलंबियों के हाथों से अपनी ओर से प्रसाद चढ़वाते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि कृत, कारित, अनुमोदना तीनों का एक ही फल है। । इन सब अन्यथा मान्यताओं के परिमार्जन का स्थान पाठशाला है, जहाँ शुद्ध दिग्दर्शन से छात्र-छात्राओं को अवगत कराया जाता है। | पाठशाला : ज्ञान एवं क्रिया में एकरूपता केवल ज्ञानार्जन ही नहीं अपितु पाठशालाओं में जैन संस्कृति, अनुरूप परम्पराओं की प्रायोगिक शिक्षा दी जाती है। वाद-विवाद, प्रश्न मंच, भाषण प्रतियोगिता, भजन एवं | Jain Education International अन्य प्रतियोगिताएँ, लघु नाटिकाएँ, वार्तालाप आदि के आयोजन समय-समय पर होते रहते हैं। जैनपर्व समारोह पूर्वक मनाये जाते हैं। प्रसिद्ध जैनकथानकों के अनुरूप झाकियां भी सुसज्जित की जाती हैं, जिनके माध्यम से छात्र-छात्रायें करके सीखते हैं। सामूहिक कार्य करने से उनमें सामूहिक उत्तरदायित्त्व एवं सामाजिकता की भावना का विकास होता है । मात्र दर्शन, ज्ञान की सैद्धांतिक शिक्षा जहाँ एक ओर नीरस है तो दूसरी ओर कार्यकारी भी नहीं है। छात्र छात्रायें जो सैद्धांतिक ज्ञान अर्जित करते हैं, उन्हें अपने व्यवहारिक जीवन में अपनाने को भी प्रेरित किया जाता है। पाठशालाओं में प्रतिदिन छात्र कुछ न कुछ नियम लेते हैं, जिसका वे पालन करते हैं। इस तरह संयम का पहला पाठ पढ़ते हैं। नियमित पाठशाला जाने वाले छात्र और मात्र लौकिक शिक्षा के संस्थानों में पढ़ने वाले छात्रों के आचार-विचार, चारित्रिक दृढ़ता और ज्ञान की समझ उनके व्यवहार में दिखाई देती है। संक्षेप में मात्र ज्ञान या जानकारी एकत्रित करने वाले की यात्रा मात्र कागज की नाव में बैठकर भव-पार कर लेने के प्रयास जैसी है । उसकी समस्त जानकारियाँ चाहे वो सही हों या गलत, परिग्रह मात्र ही हैं, क्योंकि वे उसके वैयक्तिक जीवन की अंग नहीं बन पाई हैं। अच्छे-अच्छे विद्वान् पंडितों को होटल में बैठकर चाय पीते एवं समोसे खाते देखा गया है । पाठशालाओं में जैनकुलाचार की व्यवहारिक शिक्षा दी जाती है, भले ही वे एकदम होटल, आलू आदि का त्याग न कर पाये पर संस्कार तो बने रहते हैं और जब उन्हें ऐसे समय में संतों, मुनियों का समागम मिल जाता है तो वे आलू आदि अभक्ष्य पदार्थों का त्याग करने, नित्य देवदर्शन करने, पूजा करने, रात्रिभोजन त्याग करने में नहीं हिचकते । अब प्रश्न उठता है कि बालक-बालिकाओं को पाठशाला प्रवेश के लिये किस प्रकार आकर्षित करें एवं पढ़ाएं। इस सम्बन्ध में मेरे निम्नलिखित सुझाव हैं: १. धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ लौकिक विषयों के अध्यापन की व्यवस्था सामान्यतया छात्र - छात्राएँ अंग्रेजी एवं गणित विषयों में कठिनाई का अनुभव करते हैं और इन विषयों की ट्यूशन करते हैं। परिणामत: उन्हें पाठशाला आने का समय नहीं मि लता। यदि हम पाठशाला में भी इन दोनों विषयों के अध्यापन की व्यवस्था कर दें या कम से कम सप्ताह में दो दिन इनके लिये नियत कर दें तो छात्र पाठशाला प्रवेश के प्रति आकर्षित होंगे। समाज में ही ऐसे युवक-युवती मिल जायेंगे, जो इन विषयों का शिक्षण निःशुल्क जनवरी-फरवरी 2006 जिनभाषित / 27 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52