Book Title: Jinabhashita 2006 01 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 22
________________ बालकों से लेकर वृद्धों तक यही समझाया जाता है कि क्या , छुरी, कटारी, विष, अग्नि, हल, तलवार, धनुष, बाण आदि करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए। व्यर्थ के कार्यों से | दूसरों को गलत उपयोग के लिए नहीं देना चाहिए। स्वयं भी हिंसा आदि बढ़ती है, अत: निष्कारण कार्यों से सतत बचकर | इनका प्रयोग/उपयोग बहुत सावधानीपूर्वक करना चाहिए, रहना चाहिए। जिससे हिंसा न हो। ज्ञानहीन. असत्य. राग-द्वेष को बढाने पापर्द्धिजयपराजय संगर परदारगमनचौर्याद्याः। वाली कथा-कहानियाँ-चर्चाएँ न सुनना चाहिए, न पढ़ना नकदाचनापि चिन्त्याः पापफलं केवलं यस्मात्॥१४१॥ चाहिए, न याद करना चाहिए और न इनकी शिक्षा देनी विद्यावाणिज्यमषी कृषिसेवाशिल्पजीविनां पुंसाम्। चाहिए । जुआ सभी अनर्थों की जड़ है। यह निर्लोभ भाव का पापोपदेशदानं कदाचिदपि नैव करणीयम्॥ १४२॥ नाशक है, माया दगाबाजी, छल, कपट का घर है, चोरी और भूखननवृक्षमोटन शाड् बलदलनाम्बुसेचनादीनि। झूठ का अड्डा है, अतएव सज्जनों को दूर से ही छोड़ देना निष्कारणं न कुर्याद्दलफल कुसुमोच्चयानपि च ॥१४३॥ चाहिए। पुरुषार्थसिद्ध्युपाय उक्त प्रकार की सशिक्षा के माध्यम से, देवदर्शन, रात्रि पापवर्द्धक बुरे विचार करना, बुरा चिन्तन करना, व्यर्थ | भोजनत्याग, जलगालन, पंचोदुम्बर भक्षणत्याग आदि के महत्त्व विकल्प करना, आर्त्त-रौद्र भाव करना, निष्प्रयोजन को समझकर सूतकपातक काल की शुद्धि के विधान को (आवश्यकता के बिना या आवश्यकता से अधिक) कार्य | बताकर, व्रताचरण-संयम मार्ग को सिखलाकर श्रावकधर्म करना 'अनर्थदण्ड' (व्यर्थ का अपराध) कहलाता है। ये का पूर्ण बोध कराकर विद्वानों द्वारा संस्कारों का यथाविधि बुद्धिमान लोगों द्वारा करणीय नहीं है, क्योंकि इनसे पाप का | बहुसंख्या में प्रचार किया जाता रहे तो समाज की होनहार बंध होता है। संतान आदर्श वीर अकलंक, निकलंक की तरह बहुश्रुत ___ आजीविका के लिए विद्या-वाणिज्य-मषी-कृषि-सेवा- विद्वान् तथा समाज और संस्कृति की रक्षा करने में पूर्ण शिल्प (कला-व्यापार-मुनीमी खेती-नौकरी-कोई कला) से | समर्थ होगी। संस्कार सम्पन्न होकर भगवान् महावीर, महात्मा सम्बन्धित कार्य ही करने चाहिए। लोभ-लालच में आकर | बुद्ध, मर्यादा पुरुषोत्तम राम जैसे आदर्श को प्राप्त करेगी। हिंसावर्धक आजीविका कभी नहीं करनी चाहिए। पापमय सन्दर्भ आजीविका न स्वयं को करनी चाहिए न ही दूसरों को कोई १. समाधिशतक टीका ३७/२३६/८ हिंसामय आजीविका का उपदेश देना चाहिए। २. 'नरकादिभवेषु पूर्वभव श्रुतधारिमतत्वार्थस्य संस्कारबलात् निष्प्रयोजन पृथ्वी का खोदना, वृक्ष काटना, हरी घास सम्यग्दर्शनप्राप्तिर्भवति' लबिधसार जी.प्र. ६/४५/४ वनस्पति को काटना-उखाड़ना-छेड़ना, व्यर्थ पानी गिराना, ३. धवला टीका ५/१९-१, २३/४१/१० पत्र-फल-फूल आदि का संचय 'अनर्थदण्ड' है, अतः ये ४. समाधिशतकम् ३७ सब त्याज्य हैं। ५. वही ४५ संस्कारों के साथ युद्ध चल रहा है और इस युद्ध में ६. आहितसंस्कारस्य कस्यचिच्छब्दग्रहणकाल एव तद्रसादि भारतीय समाज पराजित हो रहा है। जहाँ देखो, वहाँ हिंसा प्रत्ययोत्पत्त्युलम्भाच्च ॥ धवला ९/४०/४५ का ताण्डव हो रहा है। संस्कारहीनता के मुख्य कारण ७. तथा चानुश्रुयते विष्णुगुप्तानुग्रहादनधिकृतोऽपि किल आतंकवाद, परिग्रहवाद, बढ़ती हुई दुष्प्रवृत्तियों और चन्द्रगुप्तः साम्राज्य मवापेति॥ यशस्तिलक चम्पू। अश्लीलता आदि हैं। अगर बचपन से ही शास्त्रों में बताए ८. महापुराण ३८/५१ से ६८ हुए विषयों का ज्ञान हो तो इस अवस्था में अत्याचार और ९. विद्यावान् पुरुषों लोके म्यति याति कोविदैः। अनाचार के घिनौने कृत्यों में संलिप्तता हो ही नहीं सकती १०. नारी च तद्वती धत्ते स्त्री सष्टेरग्रिमं पदम्॥ आदिपुराण ॥ है। हमारे आचार्यों ने बड़े वात्सल्य भाव से जो शिक्षाएँ दी हैं, १६/९८ उन्हें विद्वान् ही समाज में प्रसारित कर सकते हैं। जैसे- ११. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय १४४ से १४६ आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी की ये शिक्षाएँ बहुत कारगर हैं। रीडर संस्कृत इन्हें विद्वान समाज में पहँचाकर संस्कारों की सम्पन्नता में दिगम्बर जैन कॉलेज, बड़ौत महनीय योगदान देते हैं- हिंसा के उपकरणों (साधनों) जैसे20 / जनवरी-फरवरी 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only ivate & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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