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गया है, किन्तु जिनपूजा के लिए दिग्पाल को दिया गया | पूजा विषय में जो समान देखता है, वह नीचे-नरक में दूर है। यह आशय स्पष्ट अभिव्यक्त होता है।९२
तक जाता है अर्थात् सातवें नरक के नीचे जो निगोद स्थान है यज् धातु के जो ऊपर ३ अर्थ बताए हैं, उनमें पूजा अर्थ | वहाँ तक का पात्र होता है॥२४०॥ अरहंत ही के साथ लगाना चाहिए बाकी देना और संगति | वे व्यन्तरादि देवता शासन की रक्षा के लिए आगम में करना अर्थ भवनत्रिक देवों के साथ लगाना चाहिए। कल्पित किए गए हैं, अतः सम्यग्दृष्टि उन्हें (जिनपूजार्थ) नित्यमहोद्योत श्लोक ९५ की टीका में (अभिषेकपाठ | पूजाद्रव्यभाग देकर सम्मानित प्रसन्न करें ॥ २४१ ॥
८७ में) लिखा है-'यजे = पूजयामि इति | इसमें व्यन्तरादि देवों की पूजा तो दूर, पूजा की दृष्टि मात्र सन्निधिकरणं सूचितं अर्थात् यहाँ यज् धातु का तात्पर्य | को नरक-निगोद का स्थान बताया है। सन्निधिकरण अर्थ में है। आगे के श्लोकों में भी यज् धातु | | जिस तरह सुभौम चक्रवर्ती ने व्यन्तरदेव के बहकावे में का प्रयोग है, उन सबका यही अर्थ है कि इन्द्र भवनत्रिक | आकर जल में नमस्कार मंत्र लिख उसे मिटा दिया था और देवों को जिनपूजार्थ अपने सन्निकट (साथ में)' लेता है१३ । | जिससे वह सातवें नरक में गया,तो जो व्यन्तरपूजा (मिथ्यात्व अथवा भवनत्रिकों को जिनपूजार्थ पूजाद्रव्य देता है।१४ सेवन) करते हैं, वे तो निश्चय ही नरक निगोद के पात्र होंगे,
नित्यमहोद्योत श्लोक ५१ (अभिषेकपाठ संग्रह पृष्ठ १५१) | इसमें कोई संशय नहीं। इसी से स्वामी समन्तभद्र ने में 'भूम्यर्चन' (भूमिपूजा) का कथन है, उसका टीकाकार ने | रत्नकरण्डक श्रावकाचार में लिखा है - अर्थ- 'भूमि-शुद्धि' दिया है। नीचे पाद टिप्पण में लिखा है- न सम्यक्त्वसमं किंचित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि। 'ॐ ह्रीं श्रीं क्ष्वी भू शुद्ध्यतु स्वाहा। भूमिशोधनम्॥'
श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमंनान्यत्तनुभृताम्।।३४।। यही बात गुणभद्रकृत वृहत्स्नपन के श्लोक २ में इस अर्थात् प्राणियों के लिये तीनों कालों और तीनों लोकों में प्रकार दी है -ॐ शोधयामि भभागं जिनेन्द्राभिषेकोवोत्सवे॥| सम्यक्त्व के समान दूसरा न ते भूमिशोधनम्। (अभिषेकपाठसंग्रह पृष्ठ १४, पृष्ठ १४५) दर्भपूलेन | मिथ्यात्व के समान कोई दूसरा अहितकारी है। भूमि सम्मार्जयेत्। यहाँ भूमिपूजा का अर्थ भूमि की अष्टद्रव्य | ऊपर श्लोक २४१ में सोमदेव ने कल्पित शासनपालों को से पूजा नहीं है, किन्तु जलादि से भूमि का धोना और बुहारी | जिनपूजार्थ पूजाद्रव्य देना बताया है, स्वयं उनको पूजना नहीं से भूमि का प्रमार्जन करना है जो सार्थक और संगत है। बताया है, अगर उन्हें ऐसा बताना इष्ट होता तो वे "माननीयाः"
इसी तरह पीठार्चन का अर्थ पीठ की जलादि से शुद्धि१६ | की बजाय "पूजनीयाः" शब्द का प्रयोग कर सकते थे। और पीठ पर अष्टद्रव्य थाल रखना है। कलशार्चन का अर्थ | किन्तु ऐसा है नहीं, सोमदेव ने तो यशस्तिलकचम्पू के आश्वास भी चारों कोणों में कलशों की स्थापना करना है। यही पीठ | ६ श्लोक १३९ से १४२ में सूर्य को अर्घ्य प्रदान करना और कलश की सही पूजा है।
| यक्षादि की सेवा पूजा करना इनको स्पष्ट मूढ़ता-मिथ्यात्व ___ नित्यमहोद्योत श्लोक ७३ के 'प्रसादय' पद का टीकाकार | बताया है। ने 'प्रसन्नीकृत्य पूजयित्वा' अर्थ किया है (अभिषेकपाठसंग्रह | इन्द्र शासनदेव का आह्वान और उन्हें अर्घ्य-समर्पण पृष्ठ १६३) इससे पूजा का अर्थ प्रसन्न करना भी हो जाता है। | जिनपूजा ही के लिये करता है, इसकी अभिव्यक्ति जिनयज्ञ . इस तरह अर्चन या पूजा शब्द का अर्थ सर्वत्र अष्टद्रव्य से | कल्प (आशाधर कृत) अध्याय ३ के निम्नांकित श्लोकों से पूजन करना ही नहीं होता है, किन्तु द्रव्य, क्षेत्र, काल, | भी अच्छी तरह होती है :भावानुसार विविध अर्थ हो जाते हैं। प्रकरणानुसार संगत अर्थ प्रभुं भक्तुमिहागत्य प्राची चिन्वन्निजश्रिया। ही लेना चाहिए।
बलिं विजययक्षेश मंत्रपूतां स्वसात्कुरु॥१९६॥ सोमदेवसूरि ने 'यशस्तिलकचम्पू' आश्वास ८ में लिखा
अत्रापाचीमलंकृत्य भजमानो जगत्पतिम्। यथार्हबलिसंतुष्टो वैजयंत जयं तनु॥ १९७॥
देवाधिदेवसेवायै प्रतीची दिशमास्थितः। देवं जगत्त्रयीनेत्रं, व्यन्तराद्याश्च देवताः। समं पूजाविधानेषु, पश्यन्दूरं व्रजेदधः ॥२०॥
बलिदानेन संप्रीतो जयंत जय दुर्जयान्॥१९८॥ ताः शासनाधिरक्षार्थं कल्पिताः परमागमे।
इनमें कहीं भी पूजाद्रव्यों से यक्षों को पूजित करने की अतो यज्ञांशदानेन माननीयाः सदृष्टिभिः ॥२४॥
बात नहीं लिखी है किन्तु जिनेन्द्र की पूजा के लिये दिये गये अर्थात् सर्वज्ञदेव अरिहंत और व्यंतरादि देवताओं को | पूजाद्रव्यों से उनका संतुष्ट होना लिखा है। 14 / जनवरी-फरवरी 2006 जिनभाषित
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