Book Title: Jinabhashita 2006 01 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 11
________________ भी वैसी आत्मा विद्यमान है जैसी कि मुझमें है। तुमने संसार । कृपा एवं अहिंसक दृष्टि आज भी हमारे लिए मार्गदर्शक बन को आँखें खोल-खोलकर देखा अब दृष्टि अपनी ओर मोड़ सकती है। यदि समाज के प्रहरी मानवता के प्रति पहरेदार लो। दृष्टि अपनी ओर मुड़ते ही सारे सृष्टि बदल जाएगी और | की भूमिका निभाएं तो हमारा जीवन भी सफल हो सकता है तुम भी सच्चे अर्थों में जिन, जयी और बाहुबली बन जाओगे।| और मानवता भी हम महामानवों का सान्निध्य पाकर उपकृत इस मूर्ति के कारण ही आज बाहुबली जिनदेवता के साथ- | हो सकती है। साथ लोकदेवता के रूप में देश-विदेश में प्रतिष्ठित हैं। ___ भगवान् बाहुबली का जीवन पराधीनता का नहीं स्वाधीनता __ आज जबकि विश्व के अधिकांश देशों में राजसत्ता की | और संप्रभुता का जीवन है। वे किसी से कुछ छीनना नहीं प्राप्ति के लिए संघर्ष चल रहे हैं, वहीं भगवान् बाहुबली का | चाहते थे। वे जो दे सकते थे, उससे उन्होंने कभी इंकार नहीं जीवन हमें बताता है कि आत्मवैभव के आगे राज्यवैभव किया। उनके जीवन के सबसे बड़े आदर्श उनके पूज्य पिता तुच्छ है। राजसत्ता का पालन करने के लिए व्यक्ति को प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव थे और उन्होंने अपने जीवन अधिकार सम्पन्न होना चाहिए साथ ही कर्म सम्पन्न भी। को उनके ही मार्ग पर चलाकर बता दिया कि वे अपने पिता यदि आप प्राप्त अधिकार का संरक्षण या सदुपयोग नहीं कर के सही उत्तराधिकारी थे। राज्यसत्ता का लोभ न उन्हें कभी सकते तो तुम्हें उस सत्ता पर अधिकार बनाए रखना उचित | था और प्राप्त होने पर भी वह उसे बांध नहीं सकी। जो शुद्ध नहीं है, उसको त्याग देना ही उचित है। बाहुबली को भी | और सच्चरित्र होता है वह किसी बंधन में बंधता ही नहीं, उनके पिता भगवान् ऋषभदेव ने पोदनपुर का राज्य दिया था, वह तो बंधन मुक्ति के लिए बना होता है। बाहुबली ने अपने जिसका उन्होंने उचित परिपालन किया और पिता के द्वारा | जीवन से हम सबको यह बतलाया है कि आनंद का स्रोत प्रदत्त राज्य के संरक्षण में चक्रवर्ती के चक्र के आगे भी नहीं | आत्मा है। वैर से निर्वैर होकर, वेद से निर्वेद होकर देखो। झुके। उनके लिए प्रजाहित ही सर्वोपरि था। परिणाम यह | | तप तपाता अवश्य है किन्तु कालिमा को काटता भी है। निकला कि वे चक्र के दुष्चक्र से बाधित नहीं हुए, हाँ इतना | | परिणाम अहिंसक हो, अपरिग्रह की भावना हो तो तुम भी अवश्य हुआ कि चक्र को ही उनके आगे झुकना पड़ा। युद्ध | सत्य के पथिक बाहुबली बन जाओगे। इतना स्पष्ट मुखर की अवस्था में भी बाहुबली का विवेक सदैव जागृत रहा | संदेश आज हमें भगवान् बाहुबली की गोम्मटेश्वर-प्रतिमा यही कारण है कि मल्लयुद्ध के समय भरत को कंधों तक | से प्राप्त होता है, जिसे प्राप्त करने वाला तत्काल प्रभाव से तो उठा लिया लेकिन उन्हें भूमिसात् करने का विचार तक | प्रभावित होता है। उसके अंदर भी वैराग्य के प्रति श्रद्धा नहीं आया और उन्हें ससम्मान जमीन पर उतार दिया। अब | जागृत होती है। इस तरह अपरिमित शांति, समता, वैराग्य राज्य सत्ता के लिए संघर्ष समाप्त हो गया था। जब वैराग्य | और सिद्धि को बताने वाली श्रवणबेलगोला स्थित भगवान आ गया तो एक क्षण के लिए भी राज्य की ओर नहीं देखा, | बाहुबली की मूर्ति युगों-युगों तक विद्यमान रहे और हम राज्य के प्रति आसक्ति नहीं दिखाई। आज आवश्यकता है | | सबको मोक्षमार्ग का दिग्दर्शन कराती रहे; इसी भावना के कि हमारे शासनाध्यक्ष भी अपने सामने बाहुबली के इस | साथ मैं भगवान् बाहुबली गोम्मटेश्वर को श्रद्धा-भक्ति-युक्त आदर्श को सामने रखकर शासन करें और प्रजा के हित से | | प्रणाम करता हूँ। विमुख न हों। हम बाहुबली के आदर्श को अपने जीवन में मंत्री- श्री अ.भा.दि.जैन विद्वत्परिषद् उतारकर ही सखी एवं समद्ध जीवन जी सकते हैं। उनका | एल-६५, न्यू इंदिरा नगर, बुरहानपुर (म.प्र.) परम तपस्वी जीवन, उत्कृष्ट चरित्र, निरीह प्राणियों के प्रति आचार्य विद्यासागर वचनामृत • बड़े से बड़े तप से जो निर्जरा नहीं होती है, वह आगम के अनुसार चर्या, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त से होती है। • जो संकल्पों को पूर्ण रूप से पालता है, वही सही अर्थों में व्रतों में दीक्षित है। जिस प्रकार बाजार में सामान खरीदने जाते हैं, तो पैसों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार जब हम शुद्धोपयोग आदि ध्यान एवं तप करना चाहें, तो उसके लिए २८ मूलगुण होना जरूरी हैं। 'सर्वोदयादि पंचशतकावली व स्तुति-सरोज संग्रह से साभार जनवरी-फरवरी 2006 जिनभाषित /9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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