Book Title: Jambudwip Pragnaptisutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 470
________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २७ चन्द्रसूर्यादीनां ताराविमानौच्चत्वादिनि० ४५३ त्राणि अभिजिदादीनि परिवारः परिक्षारभूनान्येकैकस्य चन्द्रस्य भवति तथा 'छावढिसहस्साई' षट्षष्टिः सहस्राणि 'णव य सया' नवशानि, 'पण्णत्तरा तारागण कोडाकोडीओ पण्णता' पञ्चसप्तत्यधिकानि तारागणकोटाकोटी परिवारभूतानि प्रज्ञप्तानि-कथितानि पक्षष्टिः सहस्राणि पश्चसप्तत्युत्तराणि नवशतानि तारागणकोटिकोटीनां परिवारभूतानि एकैकस्य चन्द्रस्य भवन्तीत्यर्थः । यद्यप्यत्र एते महाग्रहादयः चन्द्रस्यैव परिवाररूपेण कथिताः तथापि सूर्यस्यापि इन्द्रत्वा देते एव ग्रहादयः परिवारतया ज्ञातव्याः समवायसूत्रे जीवाभिगम. सूत्रादौ च तथैव दर्शनादिति द्वितीयं द्वारम् २ ॥ ___सम्प्रति तृतीयं द्वारं प्रष्टुमाह-'मंदरस्स णं भंते' इत्यादि, 'मंदरस गं भंते ! पव्वयस्स' मन्दरस्य-मेरुनामकस्य खल्ल भदन्त ! पर्वतस्य 'केवइयाए 'अबाहाए' कियत्या-कियप्रमाणकया अबाधया-बाधारहितया 'जोइसं चारं चरई ज्योतिषं चारं ज्योतिश्चक्र चार गतिं चरति-करोति इति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'इक्कापरिवाररूप भौमादिक महाग्रह ८८ हैं तथा-'अट्ठावीसइ पक्खत्ता परिवारो' अभिजित् आदि २८ नक्षत्र परिवाररूप है तथा 'छावहिसहस्साई णवय सया पण्णसरा तारागण कोडा कोडीओ पण्णत्ता' ६६९७५ छयासठ हजार नौ सौ पिंचोत्तर तारागणों की कोटाकोटी परिवार भूत कही गई है यद्यपि यहां ये पूर्वोक्त महाग्रहादिक एक चन्द्र के परिवाररूप से कहे गये हैं फिर भी इन्द्र होने के कारण एक सूर्य के भी येही पूर्वोक्त ग्रहादिक परिवाररूप से कहे गये जानना चाहिये क्यों कि समवायाङ्गसूत्र में और जीवाभिगमसूत्र आदि में ऐसा ही कथन मिता है। द्वितीय द्वार समाप्त । तृतीय द्वार का कथन'मंदरस्स णं भंते ! पव्ययस्स केवइयाए अधाहाए जोइसं चार चरइ हैं भदन्त ! ज्योतिषी देव सुमेरु पर्वत को कितनी दूर पर छोड कर गति करते हैं ? णखत्ता परिवारो' समिrd मा २८ नक्षत्र परिवार ३५ छ तथा 'छावद्विसहस्साई णव य सया पण्णन्तरा तारागण कोडाकोडीओ पण्णत्ता' १६८७५ छ। २ नसे पयाતેર તારાગણેની કેટકેટી પરિવ રભૂત કહેવામાં આવેલ છે. અલબત્ત અહીં આ પૂક્તિ મહામહાદિક એક ચન્દ્રના પરિવારરૂપે કહેવામાં આવ્યા છે તેમ છતાં ઈન્દ્ર હોવાના કારણે એક સૂર્યના પણ આ જ પૂર્વોક્ત ગ્રહાદિક પરિવાર રૂપથી કહેવામાં આવ્યા છે એ પ્રમાણે જાણવું જોઈએ કારણ કે સમવાયાંગસૂત્રમાં તેમજ જીવાભિગમસૂત્ર આદિમાં આવું જકથન મળે છે. દ્વિતીયદ્વાર સમાપ્ત . તૃતીયદ્વાર કથન– 'मंदरस्स णं भंते ! पव्वयस्स केवइयाए अबाहाए जोइस चार चरई' महात! જ્યોતિષી દેવ સુમેરૂ પર્વતને કેટલે દૂર છેડીને ગતિ કરે છે? આના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે.

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