Book Title: Jambudwip Pragnaptisutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 552
________________ ५३७. ' प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कारः सु. ३३ जम्बूद्वीपस्यायामादिकनिरूपणम् जम्बूद्वीपोऽपि सर्वथा विनश्वर स्वभावः स्यादित्याशङ्कयामाद- 'जंबुद्दीवेगं' इत्यादि, 'जंबुद्दीवेण भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपः खलु भदन्त ! द्वीपः सर्वद्वीपमध्यवर्त्ती जम्बूद्वीपः 'कालओ केवच्चिरं होई' कालतः कालापेक्षा कियच्चिरमवस्थितो भवतीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'ण कयाविणासी' न कदापि नासीत् पूर्वकालेऽयंनासीत् इति न किन्तु पूर्वकालेsपि आसीदेव, यथा घटादिरागन्तुकः पदार्थः स्वोत्पत्तेः पूर्वमदृश्यमानः पूर्वनासीदिति कथ्यते नैवं जम्बूद्वीपः कदाचिदपि नासीत् किन्तु यथा इदानीं समुपलभ्यते तथा इतः पूर्वमपि उपलब्ध. एवेति । 'णकयावि णत्थि' न कदापि नास्ति अपितु सर्वदापि अस्त्येव, अनादितया उत्पाध सिप असासए' इसी कारण हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि जम्बूद्वीप किसी रूप से शाश्वत है और किसी रूप से अशाश्वत है । क्यों कि वर्णादि पर्यायों में प्रतिक्षण अपूर्व २ परिणामरूप से परिणमन होता रहता है इसलिये किञ्चित काल तक ही वह उसरूप में स्थायी रहता है बाद में अन्यरूप में परिणमित हो जाता है इसीलिये इसे अस्थायी कहा गया है, अब यदि कोई ऐसी आशंका यहां पर करे कि शाश्वत् रूपवाला घटादिक पदार्थ जिस प्रकार सर्वथा विनश्वर स्वभाववाला देखने में आता है तो उसी तरह जम्बूद्वीप भी सर्वथा विनश्वर स्वभाव वाला हो जायेगा तो इस आशंका की निवृत्ति के लिये सूत्रकार कहते हैं- 'जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे कालओ केवच्चिरं होइ' जब गौतमस्वामी ने ऐसा पूछा कि यह जम्बुद्वीपकाल की अपेक्षा कितने कल तक रहता है तो इसके समाधाननिमित्त प्रभुश्री ने ऐसा कहा है 'ण कयावि णासी' हे गौतम ! यह जम्बूद्वीप पूर्वकाल में कभी नहीं था- यह बात नहीं है किन्तु यह पूर्वकाल में भी था जिसप्रकार घडादि पदार्थ अपनी उत्पत्ति से पहिले अदृश्य होने के कारण नहीं था ऐसा माना जाता है ऐसा वह जम्बूद्वीप नहीं है किन्तु जैसा यह इस समय આ કારણે જ શ્રી ભગવાન કંડે છે કે હું ગૌતમ ! મેં એવુ' કહ્યું છે કે વર્ણાદિ પર્યાંચામાં પ્રતિક્ષણ આયી કેટલાંક કાળ સુધી તે તે અપૂર્વ અપૂર્વ પરિણામરૂપથી પરિણમન થતુ રહે રૂપમાં સ્થાયી રહે છે પાછળથી અન્યરૂપમાં પરિણમિત થઇ નય છે એથી તેને અસ્થાયી કહેવામાં આવેલ છે હવે જો કાઇ કઢાચ એવી આશકા અહીંયા કરે કે શાશ્વત અશાતરૂપવાળા ઘટાર્દિક પદાર્થ જે રીતે સર્વથા વિનશ્વર સ્વભાવવાળા જોવામાં આવે છે ને એવી જ રીતે જમૂદ્રીય પહુ સથા વિનશ્વર સ્વભાવવાળા થઈ જશે. આ શંકાની निवृत्ति समेत सूत्रकार महे छे-'जंबुद्दीवेणं अंते ! दीवे कालओ केवच्चिरं होई' नयारे ગૌતમસ્વામીએ આ પ્રમાણે પૂંછ્યું કે આ જમ્મૂઢીપ કાળથી અપેક્ષા કેટલા કાળ સુધી रहे छे माना सभाधान निमित्त प्रभु प्रमाशे धु' हे 'ण कयाविणासी' हे गीतभ ! આ જમ્મૂદ્રીપ પૂર્વકાળમાં કયારે પણ હતા નહી એવી કઇ વાત ની પરન્તુ તે

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