Book Title: Jambudwip Pragnaptisutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 539
________________ जम्मवीपप्रतिको द्विजयेषु वासुदेव स्वामिकाऽन्यता विजय चतुष्क वर्जित विजयस ष्टाविंशति वक्रातिना, भरतैरवंतयोस्तु द्वौ चक्रवत्तिनौ इति पूर्वापरसंकलनया त्रिंशचक्रवचिना, यदा तु महाविदेहक्षेने उत्कृष्टपदेऽष्टाविंशति श्चक्रवर्तिनः प्राप्यन्यै तदा नियमतश्चतुर्णामर्द्धचक्रिणां संभषेन तभिरुद्धक्षेत्रेषु चक्रवर्तिनामसंभवात्, चक्रवत्तिनामर्द्ध चक्रवत्तिनां च सहानवस्थानलक्षणविरो; घात, यत्र चक्रीन भवति तत्रार्धचक्रवर्ती, यत्र चादचक्रवर्तीन भवति तस्मिन् क्षेत्रे चक्रवर्तीवि॥ ___सम्पति-बलदेवानर्धचक्रवर्तिनचाह-'वरदेवा' इत्यादि, 'वरदेवा वत्तियाचेव जचिया पकवट्टी' वलदेवा स्तावन्त एव यावन्त चक्रवर्तिनः यावत्प्रमाणका यदा चक्रवत्तिनो भवन्ति नम्बूद्वीपे तदा तावन्त स्तावत्प्रमाणका वलदेवा भवन्ति तावन्त एव बलदेवा जघन्यपदे उस्कृष्टपदे च, अयं भावा-यदा यत्र जयन्ये चत्वारश्चक्रिणस्तदा-तत्र जघन्यपदे चत्वारो बलदेगः, यदा-यत्र चोत्कृष्टपदे त्रिंशचक्रवत्तिा सदा निशद्वलदेवा भवन्तीति । 'वासुदेवा वितत्तिया चेवत्ति' वासुदेवा अपि तावन्त एवेति वलदेव सहचारित्वात् वासुदेवानाम् भयवर्ती रहते कहे गयेहैं-ये इस प्रकार से हैं-३२ विजयों में वासुदेव स्वाभाविक अन्यतर ४ विजयों को छोडकर २८ दिजयों के २८ चक्रवर्ती और भरतक्षेत्र एवं ऐरवत क्षेत्र के दो चक्रवर्ती इस प्रकार मिलाकर ३० तीस चक्रवर्ती रहते -होते कहे गये हैं। जब महाविदेह में उत्कृष्ट पद में २८ चक्रवर्ती पाये जाते हैं तय नियम से चार अर्धचक्रियों के सद्भाव से उनके द्वारा निरुद्ध क्षेत्रों में चक्रवर्ती नहीं रहते हैं क्यों कि चक्रवर्ती और अर्ध-चक्रवर्ती इन दोनों का सहानवस्थान लक्षण विरोध है जहां चक्री होता है वहां अर्धचक्री नहीं होता है और जहां अर्धचक्री होता है वहां चक्री नहीं होता है। 'बलदेवा तत्तिया चेव जत्तिया चक्कवट्टी' जितने चक्रवर्ती होते हैं उतने ही बलदेव होते हैं, अर्थात् जघन्य पद. में चार बलदेव होते हैं और उत्कृष्ट पद में ३० बलदेव होते हैं 'वासुदेवा वि तत्तिया चेव' वासुदेव भी इसी प्रकार से होते हैं क्योंकि ये वासुदेव बलदेव के આવ્યું છે અને ઉત્કૃષ્ટ પદમાં ૩૦ ચવર્તી રહેવાનું કહેવામાં આવ્યું છે તેઓ આ પ્રમાણે છે-૩૨ વિજેમાં વાસુદેવ સ્વાભાવિક અન્યતર ૪ વિજેને છોડીને ૨૮ વિજચેના ૨૮ ચકવતી અને ભરતક્ષેત્ર અને એરવતક્ષેત્રના ૨ ચક્રવર્તી એ રીતે મળીને ૩૦ ચક્રવત રહેતાં હેવાનું કહેલ છે. જ્યારે મહાવિદેહમાં ઉત્કૃષ્ટ પદમાં ૨૮ ચક્રવતી" લેવામાં આવે છે ત્યારે નિયમથી ચાર અર્ધચકિઓના સદુભાવથી તેમના દ્વારા નિરૂદ્ધ ક્ષેત્રમાં ચક્રવતી રહેતાં નથી કારણ કે ચક્રવર્તી અને અર્ધચકવતી એ બંનેને સહાનવસ્થાન લક્ષણ વિરાધ છે, જ્યાં શકી હોય છે ત્યાં અધચકી હોતા નથી અને ત્યાં भयही काय छ त्यो यी हातi नथी. 'बलदेवा तत्तिया चेव जत्तिया चक्कवट्टी' २८i ચકવર્તી હેાય છે તેટલાં જ બળદેવ હોય છે અર્થાત્ જઘન્યપદમાં ચાર બળદેવ હાય छ भने be ५४मां 30 मार हाय छे. 'वासुदेवा तचिया चेव' वासुदेव पर मा. અંધારે જ હોય છે, કારણ કે આ વાસુદેવ બળદેવના સહચારી હોય છે.

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