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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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है । जिनपूजा आदि कार्यों में जो हिंसा दिखती है, शास्त्रकार भगवंत उसे स्वरुप हिंसा कहते हैं जो मात्र बाह्य स्वरुप से हिंसा दिखती है किंतु वास्तविक परिणामों में हिंसा नहीं होती । हरिभद्रसूरिजी यशोविजयजी आदि ने स्पष्ट जिसका उल्लेख किया है ।
पृष्ठ ६ → “जब तक किसी भी व्यक्ति में गुण विद्यमान है तब तक वह वंदनीय-पूजनीय माना जाता है । यह बात सामान्य साधुसाध्वी तक ही सीमित नहीं बल्कि तीर्थ के संस्थापक तीर्थंकर भगवंतों पर भी लागू होती है । जब तीर्थंकर प्रभु का जन्म होता है, तब इन्द्रादि देवों के द्वारा किये गए जन्मोत्सव से मालूम हो जाता है कि जिनका इन्द्रों ने जन्मोत्सव किया वे तीर्थंकर प्रभु संसार का कल्याण कर इसी भव में मोक्ष पधारेंगे"
समीक्षा → यह बात बराबर नही है, इसमें एकान्त नहीं है क्योंकि गुण नही होते हुए भी २४वें तीर्थंकर बनने वाले मरीचि को भरत महाराजा ने वंदना की थी, और केवलज्ञान नहीं होते हुए भी परमविवेकी सम्यग्दृष्टि इन्द्रादि देव जन्मादि कल्याणक में शक्रस्तव द्वारा प्रभु की वंदना करते हैं तथा जन्मोत्सव द्वारा प्रभु की पूजा भक्ति भी करते हैं, अतः गुण की अविद्यमानता में भी द्रव्यनिक्षेप से व्यक्ति पूजनीय वंदनीय बन सकता है ।
इन्द्रों ने जन्मोत्सव किया... इसमें प्रश्न उठता है
सम्यग्दृष्टि और महाविवेकी ऐसे इन्द्र भी इतने विशालकाय - हजारों कलशों द्वारा इतनी भयंकर विराधना करके प्रभु का जन्मोत्सव क्यों मनाते हैं ? इतनी विराधना तो समग्र भारत के सभी मंदिरो में सभी श्रावक मिलकर सैंकड़ो साल तक अभिषेकादि करे तो भी नही होंगी, ऐसी विराधना इन्द्रों द्वारा एक जन्मोत्सव में होती है । आपकी दृष्टि में हिंसा में एकान्त पाप है, अधर्म है तो महाविवेकी इन्द्र ऐसे भयंकर पापकृत्य क्यों करते ? क्या स्थानकवासी वर्ग इस बात पर विचार करेंगे ? और हाँ क्षीरसमुद्र के जल को अचित नहीं कह सकते, मेरु के ऊपर से गिरनेवाला अभिषेक जल जो महानदी के प्रवाह तुल्य है जिससे षट्काय की हिंसा भी दुर्वार है ? ...
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