________________
१९५
जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
* स्तुति, स्वाध्याय या जाप हम धर्म स्थानों में कर सकते हैं।
समीक्षा : (१) अरे डोशीजी ! यह आपने क्या लिख डाला? स्तुति, स्वाध्याय या जाप के लिए-जिस प्रकार मूर्तिपूजकों को जिनमंदिर व जिनप्रतिमा की आवश्यकता नहीं है- ऐसा आप कहते हों ।
तो फिर - स्तुति, स्वाध्याय, या जाप के लिए धर्मस्थानों की भी क्या आवश्यकता है ? क्योंकि धर्मस्थानक (स्थानक उपाश्रय) निर्माण में भी तो हिंसा होगी ? उसकी सफाई-धोने आदि में भी हिंसा होगी । घर में भी जाप-ध्यान, स्तुति-स्वाध्याय कैसे होगा ? वह भी हिंसा से बना हुआ है । __यानि स्तुति स्वाध्याय, या जाप आपको हिंसा से बनाये गये स्थानक में नहीं, किन्तु पेड़ के नीचे ही करने चाहिए !
डोशीजी की अज्ञानता है कि स्थापना, तीर्थंकरों की नहीं होती है आचार्य की ही होती है ऐसा बता रहे हैं। स्थापना पंच परमेष्ठी की होती है । स्थापनाजी की प्रतिष्ठा विधि में अरिहंतादि पांचो की स्थापना के मंत्र बोले जाते हैं । इससे डोशीजी के कुतर्क स्वयं ही खंडित हो जाते हैं ।
मंदिर मूर्तियों में ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों के बंधन आपको मतमोह के काले चश्मे पहनने से दिख रहे हैं । ऐसा होता तो परमात्मा आगमों मे सूर्याभादि देवाधिकार में उसका उल्लेख नही करते वहाँ पर कहते की यह सावद्य कार्य हेय है । इंद्रियादि पोषण के बात का भी इसी से खंडन हो जाता है, पीछे भी प्रकरणों में उसका उत्तर दे दिया है। जिसने प्रभु प्रतिमा को परमात्मा माना है, उसकी आत्मा का विकास ही हुआ है । जिसने प्रभु प्रतिमा को पत्थर माना है, उसकी आत्मा का हास ही हुआ है ।
(३) मूर्ति नहीं मानने से मंदिरादि जायदाद के हक से वंचित रहने की बात भी बराबर ही है । डोशीजी कहते हैं 'जिसकी हमे आवश्यकता नही, उस पर हक जमाकर हम उपाधि क्यों बढ़ावे ? अधिकारवाद से धर्म का कोई संबंध नहीं है।' यह कहना सरल है । आचरण में उतरे तब सफल कहलाता है। मेवाड़ादि अनेक स्थानों में मंदिरमार्गी के घर न्यून है - नहीं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org