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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा हैं - वहाँ पर स्थानकवासी तेरापंथी खुद सेवा-भक्ति नहीं करते और हक
अधिकार भी नहीं छोड़ते हैं उसके लिये कोर्ट में भी जाते हैं, यह क्या बता रहा है, ज्ञानसुंदरजीने कहा जो बराबर ही है । यहाँ कहने का आशय यही हैं कि सम्राट सम्प्रति महाराजा कुमारपाल, धरणाशाह पोरवाल, इत्यादि पूर्वजों ने जो प्रभु भक्ति निमित्त सुंदरतम जिनमंदिर बनाए, उनसे स्थानकमागियों को वंचित रहना पड़ा है।
(४) मूर्ति नहीं मानने से ३२ सूत्रों के सिवाय अन्यसूत्र-ग्रंथों से दूर भटकने लगे । यह बात भी बराबर ही है। पूर्व में उनकी प्रामाणिकता सिद्ध की ही है । डोशीजी जो उनके लिये कहते हैं - वीतराग वचन पर दूषण लगाने वाले मतमोह में सने हुए इसलिये प्रामाणिक नहीं हैं। वह डोशीजी को मतमोह की आभिनिवेशिकता बुलवा रही है। उन ग्रंथों में से चरित्रादि अन्य भी सभी वस्तुएँ लेनी परन्तु मूर्ति-मंदिर की बात को उड़ा देना यह कदाग्रह ही है । सम्प्रदाय के रुप में स्थानकवासियों के उद्भव होने से उन्हें अपनी नई परम्परा का सृजन करना पड़ा तथा पूर्व परम्परा के अति विद्वान्, महामनीषी संयम विभूति आचार्यों को नकारना पड़ा। व्याकरण, प्रतिष्ठा आदि अनेक सुन्दर विषयों के ग्रंथों से भी वंचित रहना पड़ा । यही है शासन द्रोह का परिणाम !!
टीका-निर्युक्त्यादि का खुलासा पूर्व-प्रकरणों में किया है। लोकप्रकाश में मदिरा को पान शब्द में गिनाया तो वह उचित ही है। अशनादि ४ में भक्ष्य-अभक्ष्य तो होते ही है । वह विवेक तो करना ही पड़ता हैं । इसलिये मदिरादि पान में आनेपर भी अभक्ष्य है। जैसे मांसादि अशन में गिनने पर भी अभक्ष्य होते हैं । ऐसा नही मानो तो मदिरादि को ४ में से किस भेद में मानोगे ? बताईये । व्याख्या विपरीत नही । आपकी बुद्धि विपरीत है !
चरित्रग्रंथो की रचना खुद की बुद्धि से काल्पनिक रीति से करने का उपदेश डोशीजी दे रहे हैं। वाचक इनकी स्वछंद बुद्धि के प्रदर्शन को देखें। बिना किसी प्रमाण के चरित्ररचना-उपन्यास जैसी बनेगी, जनोपकारी कैसे हो सकती हैं । लोग तो पूर्व में यह घटित घटना है, इसलिये अपने भी ऐसे आदर्श
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