Book Title: Jainagam Siddh Murtipuja
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Chandroday Parivar

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Page 273
________________ २७० परिशिष्ठ-३ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा की क्रिया विधि में फर्क है। यह सब विषमकाल की विडंबना है। अतः किसी भी समुदाय के ऊपर अनावश्यक दोषारोपण नहीं करते हुए अपने छोटे-बड़े भाई की तरह ही व्यवहार करना हम सबके लिए उचित है। हम सभी तीर्थंकर प्रभू के ही अनुयायी है और हम सभी का लक्ष्य भी एक ही है। अतः यदि किसी विषय का विरोध करना पड़े तो उस विषय के हद तक ही रहना उचित है। ___ कुछ समय पूर्व मूर्ति पूजक समाज के कुछ भाईयों ने उदयपुर से एक पुस्तिका प्रकाशित कर स्थानकवासी मान्यता का विरोध आप की तरह ही किया था, जिसमें आने वाले शब्दों को लेकर हमने भी विरोध किया था। हमारा एक पक्षिय विरोध नहीं है और कुछ बाते हमारे कुछ पत्र-पत्रिकाओं से मालूम होगी। भगवती सूत्र शतक पन्द्रह में गोशालक द्वारा भगवान महावीर के ऊपर तेजोलेश्या का डालना भगवान को तकलीफ होना, जिसके लिए सिंह अणगार द्वारा रेवती श्राविका के घर से औषध लाने के प्रकरण में - "मज्जार कडएकुक्कुड़मंसए"का उल्लेख है जिसका साधारण व्यक्ति के लिए अर्थ होगा कि मुर्गे का मांस ऐसे ही उल्लेख से आज से करीबन चालीस वर्ष पूर्व बौद्ध विद्वान धर्मानन्द कोशंबीने भगवान महावीरको मांस भक्षी करार दिया था, जिसका काफी विरोध हुआ था । इसी के संदर्भ में पन्यासजी श्री कल्याण विजयजी ने मानव भोज मीमांसा लिखी है। जिसमें प्राकृत शब्दों को आयुर्वेद शब्द कोष निघंटु आदि के प्रमाणों से समझाया गया है क्या ऐसे शब्द होने से भगवान महावीर को मांस भक्षण करने की हिमायत करेंगे? वास्तविक अर्थ यह है कि कुक्कुड़याने एक फल जिसे आयुर्वेद में बिजोरा कहते है उसके अन्दर का गाढ़ा पदार्थ, जिसको आयुर्वेद में प्राकृत भाषा में मंसं कहा जाता है, होता है। ___ भगवान महावीर को उस समय तेजोलेश्या की गर्मी से टट्टीयों (शौच) में रक्त आ रहा था, जिसके लिए मुर्गे का मांस उपयुक्त नहीं होता क्योंकि यह तो और भी गर्मी पैदा करता है, जबकि बिजोरा का फल ठंडक पैदा करता है। स्थानकवासी समाज के मुनिराज श्री सुशिलकुमारजी ने भी ततसंबंधी, छोटीसी पुस्तिका प्रकाशित की थी ! अतः द्रोपदी के घर में मांस संबंधी जो उल्लेख है उसका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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