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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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है । इसमें आगे पीछे की बातों को जानबूझकर छिपाया है । आगे पीछे संदर्भ से ही इसके हार्द को जान सकते है । दिये हुए लेखांश पर विचार करे तो भी मुनि श्री कल्याणविजयजी म.ने लेख जाली होने की कल्पना मात्र बतायी है। मुनि श्री कल्याणविजयजी इतिहासवेत्ता विद्वान थें । जैसेजैसे प्रमाण मिलते गये उनके विचार बदलते गये । वसंतगढ (पिण्डवाड़ा) भव्य धातु प्रतिमाओं के मिलने पर लिखे ब्राह्मी लिपि के विक्रम की ८वीं सदी के लेख को देखकर उन्होंने स्वीकार किया की पंद्रहवी सदी से पूर्व भी लेख की परंपरा थी ।
इसमें आप ‘“चैत्यवाद और चैत्यवास के जमाने में स्वार्थी लोग अपना उल्लू सीधा करने के लिए कई प्रकार की चालाकियां करते थे, अनेक कल्पित ग्रंथ गढ़ डाले जाते थे... वहाँ मूर्तियों पर मनमाना संवत् लगाया जाय, तो कौन रोक सकता है ?" इस प्रकार चैत्यवासियों पर झूठा कलंक, आपके पक्षवालों की सूत्र के पाठ बदलना, अर्थ बदलना इत्यादि झूठी करतूते छिपाने के लिये लगा रहे हैं ऐसा प्रतीत होता हैं । चैत्यवासी चारित्र में शिथिल होने पर भी उन्होंने स्थानकवासियों की तरह सूत्रार्थ बदलने के महापाप कभी नहीं किए हैं। तो मूर्ति के गलत संवत् लगाने की निन्दक प्रवृत्ति वे कैसे कर सकते हैं ? जैनागमों में केवल एक मात्रा भी न्यूनाधिक कहने में अर्थात् उत्सूत्र बोलने में वे वज्रपाप और अनंत संसार बढ़ने का बड़ा भारी भय रखते थें । तो अनेक कल्पित ग्रंथ गढ़ने की बात कैसे संगत है ?
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उत्सूत्र प्ररूपणा का उनको डर था, इसका उदाहरण देखिये- द्रोणाचार्य आचारांग और सूयगडांग के टीकाकार हैं, उन्होंने ओघनियुक्ति पर टीका रची हैं जिसमें अशिवादि कारण से अकेले रहने पर वसति दुर्लभता क्रम में संविग्न-असंविग्न अंत में वसति नहीं मिले तो ही चैत्यवासी के साथ उतरना लिखा है। इससे पता चलता है द्रोणाचार्य खुद चैत्यवासी थे, तो भी कितनी भवभीरूता थी, चैत्यवासी के साथ उतरना चारित्र शिथिलता का कारण बन सकता है अत: स्वपक्ष मोह छोडकर वे शुद्ध प्ररूपणा करते हैं । इसीलिये पू. अभयदेवसूरिजी म. ने नवांगी टीका का संशोधन चैत्यवासी होते हुए भी
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