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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा पर देखा है, उसी रीति का वापिस पुनरावर्तन हो रहा है । अभी डोशीजी द्वारा छोड़े टीका पाठ को देखिये
"यल्लेप्यादिकार्हदादि विकल्पेन स्थाप्यते तद्विषये सत्यं स्थापना सत्यं यथा अजिनोऽपि जिनोऽयमनाचार्योऽप्याचार्योऽयमिति" ठाणांग सूत्र १० स्थानक टीका इसमें स्पष्ट शब्दों में लेपादि से मूर्ति बनाये उसकी अरिहंत बुद्धि से स्थापना करे, उसे अरिहंत कहे वह स्थापना सत्य है । जिन नहीं है (मूर्ति ही है), तो भी उसे जिन कहें, आचार्य नहीं हैं (मूर्ति है) तो भी उसे आचार्य कहें वह स्थापना सत्य है । इतनी स्पष्ट व्याख्या है । इसलिये डोशीजी ने उसे छोड दीया है । इसी प्रकार से प्रज्ञापनासूत्र में भी अंक को संख्या और मुद्राविन्यास से माष-कार्षापण कहना कहा है। इन दोनों व्याख्या से डोशीजी का अर्थ स्पष्ट रीति से कूट-कल्पित प्रतीत होता है । आगम में मूल सूत्र में भी टीकाकार की व्याख्या के हिसाब से स्थापना निक्षेप का स्वीकार किया है । रायपसेणी सूत्र में 'धून दाऊण जिणवराणं' पाठ में जिनप्रतिमा को 'जिन' कहकर धूप विधान बताया है। इससे स्पष्ट है डोशीजी अज्ञानता अथवा जानबूझकर लोगों को भ्रमित करते हैं।
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