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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा पृ. २६ → साक्षात् और मूर्ति में अन्तर की समीक्षा ..
इसमें डोशीजी सुंदर मित्र को अज्ञानी बनाकर खुद ज्ञानी होने का दावा करने जा रहे है, परंतु खुद ही खुद के विचारो में फंस गए है । जैसे मकड़ी अपने ही जाल मे फंस जाए !! यह उन्होंने सोचा भी नही होगा। मिट्टी, पाषाण आदि से बनाई स्थापना और कल्पना-विचार या भावना से मन में चित्रित भाव निक्षेप, अतः मन में जो अष्ट प्रातिहार्यादियुक्त तीर्थंकर की कल्पना वह अरिहंत का भाव निक्षेप है, ऐसा उनका मानना है।
अब उनको प्रश्न है - कोई शत्रुजय आदिनाथ, शंखेश्वर पार्श्वनाथ वगैरे मूर्ति देखकर उनका मनमें ध्यान करे तो उसमें आप कौन सा निक्षेप मानेंगे ? तीर्थंकर का भावनिक्षेप या मूर्ति का भाव निक्षेप? (मूर्ति तीर्थंकर का स्थापना निक्षेप है) अगर आप कहे तीर्थंकर का भाव निक्षेप तो आपको ही आपत्ति है, साक्षात् मूर्ति को वंदनादि में आपको पाप महसूस होता है, उसी मूर्ति की मन में कल्पना कर उसे वंदनादि में पुण्यबंध !! इस उलझन में आप उसे मूर्ति का भाव निक्षेप कहेंगे। मूर्ति का भाव निक्षेप तो आपके हिसाब से अपूज्य है । अब देखिए
जैसे किसी ने मूर्ति देखकर उसकी कल्पना की वह मूर्ति का भावनिक्षेप, वैसे ही तीर्थंकर को साक्षात् देखकर उसकी कल्पना करना तो शक्य नहीं है । अतः या तो उनकी मूर्ति की मन में कल्पना करनी पड़ेगी अथवा खुद की बद्धि से मनमें कल्पना चित्र बनाकर उसे मानस पटल पर उपस्थित करना पडेगा तब भी वह कल्पना चित्र का भावनिक्षेप होगा, तीर्थंकर का नहीं । जैसे मूर्ति की कल्पना मूर्ति का भाव निक्षेप वैसे ही कल्पना चित्र की कल्पना, कल्पनाचित्र का भाव निक्षेप होगा, तीर्थंकर का नहीं ।
मूर्ति से छूटने के लिये असत् कल्पनाएँ करने पर भी अंत में तो आपको ज्ञानसुंदरजी के विचारों से सहमत होना ही पड़ेगा ।
डोशीजी लिखते है "तीर्थंकर का देह... वर्णन जानकर उसका चिंतन किया जा सकता है'' यह अशक्य है चूंकि... थियरिटिकल (Thearetial) ज्ञान के बाद प्रेक्टीकल (Practical) की आवश्यकता होती है । अतः शास्त्रों से
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