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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा अच्छीणि अंतो लोहियक्खपडिसेगाओ" यह पाठ स्पष्ट रुप से, अंकरत्न श्वेत होता है, अतः आँखे श्वेत बता रहा हैं । अकेले श्वेत में विशिष्ट शोभा के लिये 'लोहिताक्ष' की स्वल्प मात्रा में रेखाएँ होती हैं । उत्तम पुरूषों के अंग भी उत्तम होते हैं, लक्षण युक्त ही होते हैं । लक्षण शास्त्र में भी ३२ लक्षण के विवरण मे आँखो के अंत भाग लाल बताए है तभी आँखो की शोभा में विशिष्टता आती है।
सफेद आँख की सिद्धि में डोशीजी "कोयासिय धवलपत्तलच्छे'' पाठ दे रहे हैं । भोले लोगों को फंसाने हेतु उसका अर्थ-"विकसित श्वेत कमल के समान श्वेत और पतली आँखे अर्थ कर रहे हैं । टीका में अर्थ
"कोकासियत्ति पद्मवद्विकसिते धवले च क्वचिद्देशे पत्रले च पक्ष्मवत्यौ अक्षिणी - लोचने यस्य स तथा" इसका अर्थ कोयासिय पद्म (=लाल कमल अथवा कमल) की तरह विकसित, अमुक देश में श्वेत पतली आँखे जिनकी ऐसे परमात्मा । इससे स्पष्ट है अमुक भाग में श्वेत आँखो का होना ही सूत्र में बताया है जो टीकाकार कहते है, संपूर्ण श्वेत नहीं, संपूर्ण श्वेत आँखे शोभास्पद नहीं होती है । टीकाकार ज्ञानी भगवंत के वचन विश्वसनीय है अथवा डोशीजी के ? पाठक स्वयं विचार करें । प्रतिमाओं की आँखे सूत्र में वर्णन है उसी प्रकार की हैं । अतः कोई अनुपपत्ति (विरोधाभास) नही आती है। अतः प्रतिमाओं की आँखो का सामान्य लाल अंत भाग युक्त ही है, उससे सरागता सिद्ध नहीं होती है । आँखो की शोभा बढ़ती है ।
दूसरी बात 'कोयासिय धवल पत्रलच्छे' से अगर आप संपूर्ण श्वेत नेत्र को सिद्ध करके उसके द्वारा - निर्विकारता-वीतरागता सिद्ध करना चाहो तो वह अशक्य है । चूंकी युगलिक पुरूष के वर्णन में भी इसी प्रकार से नेत्र का विशेषण है, क्या युगलिक भी वीतराग होंगे? इसलिये वर्णन शैली में आया हुआ यह विशेषण निर्विकारता के लिए प्रयुक्त नहीं है। ऊपर बताये मुजब टीकाकारने किया हुआ उसका अर्थ ही उचित प्रतीत होता है ।
निर्विकारता के लिये तो शास्त्रकारों ने 'वियट्टछउमे जिणे' विशेषण परमात्मा के दिये ही हैं । शरीर वर्णन शैली में बताए उस सहज-सामान्य
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