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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा हो तो मिथ्यादृष्टिदेव उन्हें क्यों पूजने लगे ? डोशीजी यह तर्क देकर प्रतिमा पूजन को लौकिकता में लेना चाहते है वह बराबर नहीं है । क्योंकि उसका उत्तर प्रभु के जन्माभिषेक महोत्सव से शास्त्र द्वारा मिलता ही है ।
जैसे जन्माभिषेक में कोई भक्ति से, कोई मित्र के आग्रह से, कोई देवी के कहने से, कोई अपना आचार समझकर इस प्रकार अलग-अलग आशयों से देव जाते हैं, इसी प्रकार अलग-अलग आशयों से देव जिनपूजा भी करेंगे सम्यग्दृष्टि देव भक्ति से धर्मश्रद्धा से करेंगे उसमें कोई विरोधाभास है ही नहीं !
पृ.५७ पर → डोशीजी लिखते है "मूर्तिपूजा धर्म व आत्मकल्याण का अंग नहीं है, न इसके लिए प्रामाणिक सूत्रों में प्रभु आज्ञा है" पाठक समझ सकते हैं डोशीजी की श्रद्धा कैसी है ? सूत्रों के प्रति भी श्रद्धा नहीं है इसलिए सूत्रों को भी प्रामाणिक-अप्रामाणिक रुप से विभाजित करते हैं । परंतु ऐसे तो इनके लिये करीब-करीब सभी सूत्रों में मूर्तिपूजा की बात आती ही है । इसके लिये पाठक ज्ञानसुंदरजी की ही लिखी "३२ सूत्रों में मूर्तिपूजा'' पुस्तक देख सकते हैं ।
अंत मे पृ. ५८ → "अहा ! अहा !! नरभव में प्रदेशी... मिथ्या ओट लेने मे लाभ ही क्या हैं ?" इसमें तो डोशीजीने उत्सूत्र प्ररूपणा की हद की कर डाली है। पहले ये बात सिद्ध कर दी गई है की मूर्तिपूजादाढ़ापूजा में ही "हियाए, सुहाए" पाठ और नमुत्थुणं का पाठ होने से वह धार्मिक जीत. व्यवहार है । जब धार्मिक जीत व्यवहार है तो सूर्याभ की भावनाएँ धर्मपरिणाम ही है, यह सिद्ध होता ही है। और देवभव में सबसे प्रथम धर्मकरणी मूर्तिपूजा सिद्ध होती है तो अर्थापत्ति प्रमाण से पूर्व भव में ठाठबाठ से जिनपूजा आदि द्वारा सम्यक्त्व निर्मल बनाया था, यह सिद्ध होता ही है, ऐसे भी सम्यक्त्व के आलापक में जिनपूजा की बात आती ही है । अतिप्रसिद्ध वस्तु का उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं होती है, उस वक्त में मूर्तिद्वेषी मत था ही नही और मूर्तिपूजा अतिप्रसिद्ध अतिमान्य होने से उसका बार-बार उल्लेख नहीं करते हैं । दूसरी बात जैसे आप समकित
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