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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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मूर्तिपूजा के पाठ हैं तो लोंकाशाह के बाद में पाठ फेरफार करने पड़े (पृ. १५५) यह डोशीजी की काल्पनिक बात नितान्त असत्य ठहरती है, और इसी से आगे कल्पना के घोडे दौड़ाये हैं, कागज काले किये हैं, जो व्यर्थ है । आगम संशोधन गीतार्थ गुरुओं का विषय है । प्रमाणों से स्पष्ट है कि लोंकाशाह को तो प्राकृत आदि का ज्ञान भी नहीं था, तो किस आधार पर लोंकाशाह ने आगमों में परिवर्तन किया ?
अमुक प्रतियों में 'जिणपडिमाणं अच्चणं करेई' इतना ही पाठ हैं, उसमें तो हमारा विरोध हैं ही नही । पू. अभयदेवसूरिजी म. सा. ने दो वाचना की बात टीका में की ही है । जिससे दो प्रकार के पाठ प्राचीन प्रतिओं में मिलते ही है । पू. अभयदेवसूरिजी म. को करीब हजार साल हुए । उनके सामने जो भी प्रतियाँ थी वे भी हजार साल पूर्व की थी । वर्तमान में प्राप्त सभी प्रतियाँ अभयदेव सूरिजी के बाद की हैं । अतः यह निश्चित होता है कि प्राचीन प्रतियों में बृहत् - वाचना में हजार साल पूर्व अभयदेवसूरिजीने नमुत्थुणं पाठ देखा, वे प्रतियाँ अतिप्राचीन थी उनकी प्रामाणिकता में अंशमात्र भी शंका का स्थान नहीं है अत: दूसरी वाचना के पाठ को गलत कहना - प्रक्षेप कहना यह शास्त्र की चोरी हैं- उत्सूत्र प्ररूपणा है इतना ही हमारा कहना हैं
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अभी अपने वास्तविकता विचार करे तो कई सालों से स्थानकवासी परंपरा ज्ञाताधर्मकथांग टीका के वाचनान्तरेतु पाठ को लेकर लोगों को भ्रमित कर रही है, टीका का उटपटांग अर्थ करके सबकी आंखो में धूल डाल रही है ।
टीका का सूक्ष्म अवलोकन करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि (१) डोसीजीने जो पृ. १५४-५५ पर " टीकाकार महाशय केवल बारह अक्षरवाले (जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ त्ति) पाठ को ही मूल में स्थान देकर बाकी के लिए वाचनान्तर में होना लिखकर टीका ही में रखते है, मूल में नहीं........." ऐसा कहा है वह सफेद झूठ है। टीकाकार को जो पाठ मूल
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