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संगोष्ठी का सिंहावलोकन
डा० प्रेम सुमन जैन
(संयोजक, संगोष्ठी)
समायोजन का आधार उदयपुर विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग ने १९७१ में परा-स्नातक कक्षाओं में प्राकृत वर्ग तथा प्राकृत की प्रमाणपत्रीय परीक्षा प्रारम्भ कर विश्वविद्यालय स्तर पर प्राकृत के अध्ययन एवं अनुसंधान का राजस्थान में विधिवत् श्रीगणेश किया। इसके पूर्व ही भट्टारक सकलकीति और उनके साहित्य पर एक शोध-छात्र अपना अनुसंधान-कार्य प्रारम्भ कर चुके थे और १६७१ में ही इन पंक्तियों के लेखक ने 'कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन' विषय में अनुसन्धान उपाधि के लिए पंजीयन करा लिया था। इस प्रकार प्राकृत के प्रारम्भिक अध्येता तथा अनुसन्धान के छात्रों तक की प्राकृत में शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था इस विश्वविद्यालय ने सन् १९७१ तक कर दी थी, जो अब तक सुचारू रूप से चल रही है। इस प्रदेश के दूसरे विश्वविद्यालयों में भी इस प्रकार का कार्य प्रारंभ हो, इसकी इस निर्वाणवर्ष में हम सभी कामना करते हैं।
राजस्थान में प्राकृत-अध्ययन की सुदृढ़ आधार शिला रखने के लिए तथा जैन विद्या का अन्य भारतीय विद्याओं की तुलना में मूल्यांकन करने के लिए यह आवश्यक था कि देश के लब्ध-प्रतिष्ठित विद्वानों की एक संगोष्ठी की जाए जो भगवान् महावीर के निर्वाण-दिवस की बेला में अपने चिन्तन का अर्घ्य समर्पित कर सके। साथ ही इस संस्कृत विभाग को अध्ययन-अनुसन्धान की सुविचारित दिशाबोध भी दे सके । इन्हीं प्रमुख लक्ष्यों और प्रयत्नों का परिणाम था अक्तूबर, १९७३ की यह संगोष्ठी। इसके पूर्व भी दिसम्बर १९६८ में प्रिंसिपल्स ऑफ लिटरेरी क्रिटिसिज्म इन संस्कृत' विषय को लेकर एक सफल संगोष्ठी प्रवर्तित करने का श्रेय विभाग को प्राप्त था, जो जैन विद्या विषयक संगोष्ठी के सफल समायोजनक का आधार बना।
संगोष्ठी का सिंहावलोकन : ६