Book Title: Jain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Author(s): Ramchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 172
________________ पर्वत की रचना, नंदीश्वर द्वीप व समवसरण की रचना, मानस्तंभ, चैत्यवृक्ष, स्तूप आदि उल्लेखनीय हैं। मूर्तिकला में विभिन्न तीर्थंकरों की मूर्तियां देखी जा सकती हैं। चित्र कला में भित्तिचित्र, ताडपत्रीय चित्र, काष्ठ चित्र, लिपिचित्र, वस्त्र पर चित्र आश्चर्य में डालने वाले हैं। निवृत्ति और प्रवृत्ति का समन्वय कर जैन धर्म ने संस्कृति को लचीला बनाया है। उसकी कठोरता को कला की बांह दी है तो उसकी कोमलता को संयम का आवरण । इसीलिए वह आज भी जीतीजागती है। आधुनिक भारत के नवनिर्माण में योग आधुनिक भारत के नवनिर्माण की सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और आर्थिक प्रवृत्तियों में जैन धर्मावलंबियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। अणुव्रत आंदोलन इसी चेतना का प्रतीक है अधिकांश सम्पन्न जैन श्रावक अपनी आय का एक निश्चित भाग लोकोपकारी प्रवृत्तियों में व्यय करने के व्रती रहे हैं। जीव-दया, पशुबलि-निषेध, स्वधर्मी वात्सल्यफंड, विधवाश्रम, वृद्धाश्रम जैसी अनेक प्रवृत्तियों के माध्यम से असहाय लोगों को सहायता मिली है। समाज में निम्न और घृणित समझे जाने वाले खटीक जाति के भाइयों में प्रचलित कुव्यसनों को मिटाकर उन्हें सात्विक जीवन जीने की प्रेरणा देने वाला धर्मपाल प्रवृत्ति का रचनात्मक कार्यक्रम अहिंसक समाज-रचना की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है। लौकिक शिक्षण के साथ-साथ नैतिक शिक्षण के लिए आज देश के विभिन्न क्षेत्रों में कई जैन शिक्षण संस्थाएं, स्वाध्याय-शिविर और छात्रावास कार्यरत हैं। निर्धन और मेधावी छात्रों को अपने शिक्षण में सहायता पहुंचाने के लिए व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर बने कई धार्मिक और पारमार्थिक ट्रस्ट हैं जो छात्रवृत्तियां और ऋण देते हैं। जन-स्वास्थ्य के सुधार की दिशा में भी जैनियों द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में कई अस्पताल और औषधालय खोले गये है, जहां रोगियों को निःशुल्क तया रियायती दरों पर चिकित्मा-सुविधाएं प्रदान की जाती है। जैन साधु और साध्वियां वर्षा ऋतु के चार महीनों में पद-यात्रा नहीं करते। वे एक ही स्थान पर ठहरते हैं जिसे 'चातुर्मास' करना कहते हैं। इस काल में जैन लोग तप, त्याग, प्रत्याख्यान, मंघ-यात्रा, तीर्थ-यात्रा, मुनि-दर्शन, उपवास, आयम्बिल, मासखमण, मंवत्सरी, क्षमापर्व जैसे विविध उपासना-प्रकारों द्वारा आध्यात्मिक जागृति के विविध कार्यक्रम बनाते हैं। इससे व्यक्तिगत जीवन निर्मल, स्वस्थ और उदार बनता है तथा सामाजिक जीवन में बंधुत्व, मैनी, वात्सल्य जैसे भावों की वृद्धि होती है। अधिकांश जैन धर्मावलम्बी कृषि, वाणिज्य और उद्योग पर निर्भर हैं । देश जैन धर्म का सांस्कृतिक मूल्यांकन : १६५

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