Book Title: Jain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Author(s): Ramchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 175
________________ के तूफानी प्रचार ने इस धर्म का भारत में अस्तित्व ही सदा के लिए समाप्त कर दिया, जबकि जन-धर्म इस तूफानी झटके को सहन कर गया और आज भी उसका अस्तित्व इस देश में बना हुआ है। बौद्ध धर्म के संपूर्ण एशिया खंड में व्याप्त हो जाने और बौद्ध-धर्मावलंबी भारतीय भिक्षुकों के विदेशों में आवागमन के प्राप्त प्रमाणों से यह तो सिद्ध ही है कि भारतीयों का विदेशों में इस काल में बेरोक-टोक आना-जाना होता था-... ऐसी अवस्था में जैन विद्वानों ने भारत से बाहर जाकर अवश्य ही स्वधर्म-प्रचार किया होगा--पर अद्यावधि ऐसे कोई प्रमाण देखने में नहीं आये हैं जिनसे यह बात सिद्ध होती हो। ऐसा प्रतीत होता है कि जैनियों का स्वल्प प्रचार बौद्ध-धर्म के विशाल धार्मिक अभियान में दबकर रह गया। दोनों धर्मों के सिद्धान्तों में स्थूल रूप से समानता के कारण भी संभवतः बाह्य देशों में उन्हें अलग करके नहीं देखा गया होगा। स्वयं भारत में भी जब सुदीर्घ काल तक यही स्थिति रही है तो विदेशों में भी यदि ऐसा समझा गया हो तो कोई आश्चर्य नहीं। जैनधर्म-ग्रंथ भी विदेशों में जैन धर्म के प्रसार के विषय में संभवतः मौन-से दिखाई देते हैं । कतिपय जैन-आख्यानों में जैन व्यापारियों द्वारा व्यापारिक संबंधों और समुद्री-यात्राओं की सूचना अवश्य ही हमें प्राप्त होती हैं-- पर धार्मिक प्रचार की नहीं । ऐसी स्थिति में अद्यावधि प्राप्त बाह्य देशों की बौद्ध-धर्म के प्रभाव को बताने वाली पुरातात्त्विक सामग्री तथा भारतीय और विदेशी संपूर्ण बौद्ध और जैन वाङ्मय के निष्पक्ष पुनरध्ययन से ही इस रहस्य का उद्घाटन हो सकता है। आज से तीन-चार शताब्दियों पूर्व के कतिपय हस्तलिखित ग्रंथों में हमें ऐसे कुछ महत्त्वपूर्ण सूत्र मिलते हैं जिनसे अवश्य यह सिद्ध होता है कि भारत से बाहर भी अफ़गानिस्तान, ईरान, ईराक, टर्की आदि देशों तथा सोवियत रूस के अजोब सागर से ओब की खाड़ी से भी उत्तर तक तथा लाटविया से अल्लाई के पश्चिमी छोर तक किसी काल में जन-धर्म का व्यापक प्रसार था। इन प्रदेशों में अनेक जैन मंदिरों, जैन-तीर्थंकरों की विशाल मूर्तियों, धर्म-शास्त्रों तथा जैन-मुनियों की विद्यमानता का भी इनमें उल्लेख है। कतिपय व्यापारियों और पर्यटकों ने, जो इसी दो-तीन शताब्दियों में हुए हैं, इन विवरणों में यह दावा किया है कि वे स्वयं इन स्थानों की अनेक कष्ट सहन करके यात्रा कर आये हैं। - ऐसे विवरणों में सर्वप्रथम विवरण बुलाकीदास खत्री का है, जो सं० १६:२ (सन् १६२५ ई०) में घोड़ों का काफिला लेकर अपने साथियों के साथ उत्तरापथ के नगरों की यात्रा पर निकला था और विभिन्न नगरों और तीर्थों की यात्रा करता हुआ नौ वर्ष बाद लौटकर अपने घर आगरा पहुंचा, जहां से उसने अपनी यात्रा प्रारंभ की थी। इस यात्रा में उसने आगरा से निकलकर लाहौर, मुल्तान, कंधार, इस्फहान (इसका नगर), खुरासान, इस्तंबूल (आसतंबोल), बब्बर, १६८ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान

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