Book Title: Jain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Author(s): Ramchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 191
________________ पर्युषण की तिथि भाद्रपद शुक्ल पंचमी से बदलकर चतुर्थी की थी क्योंकि राजा पंचमी के दिन होनेवाले इंद्रध्वज उत्सव तथा पर्युषण उत्सव, दोनों में उपस्थित होना चाहता था। इन कथाओं में राजा का वंशनाम ही दिया है-व्यक्तिगत नाम नहीं है अत: इनकी ऐतिहासिकता परखना कठिन है। विविधतीर्थकल्प में दी हई इस घटना की परंपरागत तिथि वीरनिर्वाण संवत् ६६३ ( –सन् ४६६) सातवाहनों का राज्य समाप्त होने के काफी बाद की है। संभवत: इसीलिए प्रभावकचरित में तिथि का उल्लेख नहीं किया है। प्रतिष्ठान से संबद्ध दूसरे आचार्य पालित्तय (संस्कृत में पादलिप्त) की कथा के (प्रभावकचरित, प्रकरण ५ तथा प्रबंधकोष, प्रकरण ५) अधिक सुदृढ़ आधार प्राप्त हैं। उद्योतन की कुवलयमाला (पृ० ३) में हाल राजा की सभा में पालित्तय की प्रतिष्ठा की प्रशंसा प्राप्त होती है। हाल द्वारा संपादित गाथा सप्तशती में प्राप्त एक गाथा (क्र० ७५) स्वयंभूछंद (पृ० १०३) में पालित्तय के नाम से उद्धृत है। सप्तशती की पीतांबरकृत टीका के अनुसार इसमें पालित्तय की ग्यारह गाथाएं हैं (क० ३६३-४, ४१७, ४२५, ४३३-४, ५७८, ६०६, ६२३, ७०६, ७२०) तथा भुवनपाल की टीका के अनुसार भी पालित्तय की गाथाओं की संख्या इतनी ही है यद्यपि इनके क्रमांक कुछ भिन्न हैं (७४, २१७, २५४, २५६, २५७, २६२, ३६३, ४३२, ५४५, ५७८, ५७६)। प्रभावकचरित में पालित्तय के गुरु का नाम नागहस्ति बताया है। भुवनपाल ने सप्तशती की चार गाथाएं (२०७, ३१५, ३४६, ३७३) नागहस्तिकृत बताई हैं (यहां गाथा क्रमांक श्री जोगलेकर के संस्करण से दिए हैं)। पालित्तय की तरंगवती कथा महाराष्ट्री प्राकृत का प्रथम प्रबंधकाव्य है। इसका संक्षिप्त रूपांतर प्रसिद्ध है। ___ जैन साहित्य में प्रसिद्ध तीन अन्य कथाएं सातवाहनयुग से संबद्ध हैं । हेमचंद्र के परिशिष्ट पर्व (प्रकरण १२-१३) के अनुसार आर्य समित ने अचलपुर (जि. अमरावती) के कई तापसों को जैन धर्म की दीक्षा दी थी तथा इनकी शाखा ब्रह्मदीपिका शाखा कही जाती थी। इसी कथा के अनुसार आचार्य वज्रसेन ने सोप्पार नगर (वर्तमान बंबई के निकट) में नागेंद्र, चंद्र, निति तथा विद्याधर को मुनि-दीक्षा दी थी। इनके नामों से जैन साधुओं की चार शाखाएं प्रसिद्ध हुई थीं। वज्रसेन की परंपरागत तिथि वीरनिर्वाण संवत् ६१७ (=सन् ६० ) है (मुनि दर्शनविजय संपादित पट्टावली समुच्चय भाग १, पृ० १८-२१) तथा समित इन्हीं के ज्येष्ठ समकालीन थे। वीरसेनकृत षट्खण्डागमटीका धवला के प्रथम खंड में प्राप्त कथा के अनुसार आचार्य पुष्पदंत तथा भूतवलि वेण्णायड नगर से प्रस्थान कर आचार्य धरसेन के पास गिरनार पहुंचे थे। वेण्णायड (विन्यातट ) का हरिषेणकृत वृहत्कथाकोष (कथा क्र. ६०) में निर्वाणक्षेत्र के रूप में वर्णन है जिससे प्रतीत होता है कि यह १८४ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान

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