Book Title: Jain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Author(s): Ramchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 174
________________ सोवियत गणराज्य और पश्चिम एशियाई देशों में जैन तीर्थ डॉo ब्रजमोहन जावलिया भारतीय ऋषि-मुनियों और साहसी पर्यटकों के माध्यम से प्राचीन काल में भारतीय संस्कृति विश्व के दूरस्थ अनेक भू-भागों तक व्याप्त हो गई थी । अनेक आर्य कबीलों ने भारत से बाहर जाकर इन भू-भागों में अपने निवास स्थान भी बना लिये थे । एक समय ऐसा भी आया जब भारत में वैचारिक संघर्ष छिड़ गया, विदेशी विचारों के सम्मिश्रण से वैदिक-धर्म में विकृतियां व्याप्त हो गईं और फलतः अनेक अवैदिक मत-मतान्तरों का इस देश में प्रादुर्भाव हुआ । वेदों की साक्षियां देदेकर इन मतों के प्रगर्तक भोली भारतीय जनता को बहकाने लगे और इनकी आड़ में अनेक अनाचार करने लगे। इस अवस्था में भारतीयों का विदेशियों और विदेशों में बसे भारत - वंशी प्रवासियों से संबंध लगभग टूट सा गया। भारत में तो अज्ञानान्धकार फैल ही रहा था - भारत से बाहर स्थित इन देशों की अवस्था भारत से भी बुरी थी । ऐसी ही अवस्था में बुद्ध और महावीर ने जन्म लेकर आज से लगभग २५०० वर्ष पूर्व धर्म का पुनरुद्धार कर भारतीय संस्कृति का विश्व में पुनः प्रसार करने का बीड़ा उठाया था । बुद्ध के द्वारा संस्थापित बौद्ध धर्म को अशोक जैसे महान् सम्राट का प्रश्रय मिल गया और उसी का अवलम्बन पाकर वह शीघ्र ही सम्पूर्ण एशिया में व्याप्त हो गया । उत्साही वौद्ध भिक्षुक शताब्दियों तक विदेशों में जाजाकर अनेक कष्ट सहन करते हुए धर्म का प्रचार करते रहे । पर जैन धर्म का प्रसार भारत से बाहर नहीं हो पाया । राजा-महाराजाओं को दीक्षित कर उनके माध्यम से शीघ्रातिशीघ्र अपने धर्म का प्रचार करने की विधि जैन आचार्यों ने भी अपनायी पर उसका लाभ शायद उन्हें भारत से बाहर अपना प्रचार करने में नहीं fe सका। बौद्ध धर्मावलंबी धर्म प्रचारकों ने अपना सारा ध्यान विदेशों में प्रचारहेतु केन्द्रित कर लिया और स्वयं इस धर्म की जन्मभूमि भारत में इसे सुदृढ़ करने का विशेष प्रयास नहीं किया—यही कारण है कि थोड़े ही समय बाद शंकराचार्य 1 सोवियत गणराज्य और पश्चिम एशियाई देशों में जैन तीर्थ : १६७

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