Book Title: Jain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Author(s): Ramchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 187
________________ स्थापना की थी। तेरहवीं शताब्दी में उज्जयिनी जैन संघ के देवधर प्रमुख थे, जिनकी मृत्यु १२७० ई० में तथा उसके तेरहवें दिन उनके पट्टधर विद्यानन्द सूरि की विद्यापुरी में मृत्यु हो गई, फलतः धर्मकीर्ति उपाध्याय को धर्मघोष सूरि के नाम से पट्टधर बनाया गया, जो १३०० ई० में मृत्यु को प्राप्त हुए। इन आचार्यों ने मालवभूमि में जैन धर्म के प्रसार-हेतु प्रयत्न किये थे। चौदहवीं शताब्दी के पूर्व के प्रतिष्ठित जैन तीर्थों का जिनप्रभ सूरि द्वारा लिखित विविध तीर्थ में विवरण है। उज्जयिनी में कुडुगेश्वर, मंगलपुरा में अभिनंदनदेव, दशपुर में सुपार्श्व और भैलस्वामीगढ़ (भेलसा) में महावीर को इस प्रदेश के प्रसिद्ध जैन तीर्थ वर्णित किया गया है। मदनकीति ने अपने ग्रंथ शासन चतुसीरिंशतिका' में मंगलापुर के शांतिसेन ने कई विद्वानों को वादविवाद में परास्त किया था। सुराचार्य और देवभद्र को भी भोज का संरक्षण प्राप्त हुआ था। प्रसिद्ध जैनाचार्य जिनेश्वर सूरि और बुद्धिसागर ने धारानगरी में संभवतः भोज के ही समय जैन धर्म का उद्घोष किया था। इसी समय जैन कवि नयनंदि ने १०४३ में लिखित सुदर्शन चरित में धार के जिनवर विहार का उल्लेख किया है। भोज के संरक्षण में श्रीचंद ने पराणसार की रचना की तथा रविषण के पद्मचरित और पुष्पदंत के महापुराण पर टीकाएं लिखीं। नेमीचंद्र ने आश्रमनगर में भोज के राज्यकाल में मांडलिक श्रीपाल के समय लघुद्रव्य संग्रह की रचना की थी। भोजदेव के शासनकाल में सागरनन्दि ने भोजपुर के जैन मंदिर में नेमीचंद्र सूरि के द्वारा तीर्थकर मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई थी। भोज के उत्तराधिकारी जयसिंह ने भी प्रभाचंद को सम्मान दिया था। ऊन में जैन मंदिरों का विशाल समूह है, जो ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दियों में निर्मित हुए थे, यहां के मंदिरों से भोजदेव के भ्राता उदयादित्य के दो अभिलेख और नरवर्मन के समय का सर्पबंध अभिलेख मिला है। नरवर्मन की जैन विद्वानों और आचार्यों के प्रति असीम श्रद्धा थी। मालवा में तर्कशास्त्र का अध्ययन करने वाले जैन विद्वान् समुद्रविजय नरवर्मन के आश्रित थे। चित्तौड़ से धार की यात्रा करने वाले जिनवल्लभ सूरि के उपदेशों से प्रभावित होकर नरवर्मन ने आचार्य की इच्छानुसार चित्तौड़ के दो खरतर मंदिरों को चित्तौड़ के १. खरतरगच्छ बृहदगुर्वावली २. Indian Antiquary, XI, p. 255 ३. विविध तीर्थकल्प, ४७, ३२ एवं ८५ ४. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ३४७ ५. जैन साहित्य और इतिहास. प० २७४ ६. जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह, संख्यक-३ ७. एपिग्राफिया इंडिका, पृ० ३५ ८. आर्कलाजिकल सर्वे रिपोर्ट्स, १९१८-१६, पृ० १७-१८ १८० : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान

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