________________
विजय ने जिस सहस्रमुखी गंगा के पूर्व में वौद्धों और पश्चिम में जैन राज्यों की बात कही है - वह इस स्थिति में ओब नदी ही प्रतीत होती है, जिसमें उद्गम से सागर मिलन तक सहस्रों छोटी-मोटी नदियां आकर मिल गई हैं । बुलाकीदास के अनुसार तारातंबोल इसी तोबोल सिंधु ( इतिश) के संगम पर बसा है । यह स्थिति तोबोलस्क के लिए एकदम ठीक बैठती है ।
पद्मसिंह तारातंबोल से किसी टांगनव देश जाने की अपनी इच्छा का उल्लेख करता है और कहता है कि प्रभावचन्द्रजी ने वहां से आगे न जाने को कहा अतः उसे वहीं से लौट जाना पड़ा। मुनि कान्तिसागर ने और तदुपरान्त श्री नाहटा के लेख में छपा 'टांगानव' शब्द मुझे अशुद्ध प्रतीत होता है । यह टांडारव होना चाहिए जो टुंड्रा का ही अपरनाम हो सकता है । प्राचीन ग्रंथों में 'ङ' और 'ड' के लेखन की समानता के कारण ही टांडारव को टांगानव पढ़ा गया है। टुंड्रा अत्यधिक शीतप्रधान देश है अतः प्रभावचंद्रजी के द्वारा पद्मसिंह को दिये गए वर्जनादेश में यही कारण दिखाई देता है ।
शीलविजय ने तारातंबोल से १०० गाउ ( गव्यूति) दूर जिस स्वर्णकान्ति नगर का उल्लेख किया है वह 'अल्ताई' का संस्कृत रूप है। तुर्की और मंगोल भाषाओं में अल्ताई का अर्थ है स्वर्ण गिरि ।' अल्ताई की पहाड़ियों में स्थित सोने की खानें अज्ञातकाल से ही सारे एशिया की सोने की मांग को पूरा करती रही है । अत: भारतीय व्यापारियों का भी अवश्य ही इन ग्वानों से संबंध सदा से रहा होगा, यह कल्पना की जा सकती है ।
शीलविजय ने जैन धर्मी प्रजाजनों से भरे-पूरे जिस बाट देश का नारातंबोल के साथ उल्लेख किया है वह स्पष्टतः लाटविया है। इन वर्णनों से अल्ताई से लाटविया तक की समस्त प्रजा जैन धर्मावलंबी सिद्ध होती है ।
इन प्रदेशों और नगरों की सही स्थिति का ज्ञान हो जाने पर वहां के राजाओं और राजकुमारों के जैचंद्रसूर, चंद्रसूर, मरचंद्र, कल्याण सेन, अनूपचंद्र या त्रिलोकचंद्र जैसे नामों के रखे जाने में हमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हमें पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि वहां भी भारतीय संस्कृति का प्रभाव था और मंगलखान, आनंदखान और धर्मश्री जैसे भारतीय नाम रखने की वहां प्रथा थी ।
तारातंबोल में उपलब्ध जिस जैनशास्त्र का उल्लेख दिगम्बर तीर्थयात्रा में किया गया है, वह भी हमारे लिए विचार का विषय है। भारत में 'धवला' शास्त्र तो देखा और सुना जाता है पर 'जवला गवला' शास्त्र के विषय में कोई जानकारी नहीं मिलती। मेरी मान्यता है कि यह शास्त्र उत्तरापथ के तीर्थों और १. राहुल सांकृत्यायन मध्य एशिया का इतिहास, पृ० ५७ ।
२. राहुल सांकृत्यायन : बौद्ध संस्कृति, पृ० ४२८
सोवियत गणराज्य और पश्चिम एशियाई देशों में जैन तीर्थ : १७३