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ज्योतिष एवं गणितीय-न्याय आज के फलते-फूलते विषय हैं। जैन-परंपरा में गणित-ज्योतिप के विकास कड़ी में श्रीधर हैं, जिन्होंने गणितसार, ज्योतिर्ज्ञान विधि तथा जातक तिलक रचे हैं। ज्योतिर्ज्ञान विधि में संवत्सरों के नाम, नक्षत्र नाम, योग नाम, करण नाम और उनके शुभाशुभत्व दिए गए हैं। इसमें व्यवहारोपयोगी मुहूर्त भी दिए गए हैं। मासशेष, मासाधिपति, शेष, दिन शेष, दिनाधिपति शेप आदि अर्थ गणित की उद्नुत क्रियाएं भी दी गयी हैं। इनके गणितसार पर एक जैनाचार्य की टीका भी है। पहले यह शैव थे, किंतु बाद में जैन हो गए थे। इनके पूर्व कालकाचार्य का भी ज्योतिविदों में उल्लेख है किंतु गणितज्योतिष पर कोई ग्रंथ ज्ञात नहीं है। डॉ० नेमिचंद्र ने लिखा है कि आचार्य उमास्वामी भी ज्योतिष के आवश्यक सिद्धांतों से अभिज्ञ थे। भद्रबाहु आचार्य के संबंध में शास्त्रों में भी उल्लेख मिलते हैं, तथा उनके द्वारा विरचित अर्हच्चूड़ामणि सार प्रश्न ग्रंथ मौलिक माना गया है। आचार्य गर्ग के पुत्र ऋषिपुत्र भी महान् ज्योतिर्विद थे जो वराहमिहिर से पूर्व हुए। ई० सातवीं, आठवीं सदी में चंद्रोन्मीलन प्रश्नशास्त्र प्रसिद्ध था। वेंकटेश्वर प्रेस से १९३७ में प्रकाशित ज्योतिष कल्पद्रुम उल्लेखनीय है जिसमें जिनेंद्रमाला संभवत: जैन ज्योतिष ग्रंथ है। इसी प्रकार उद्योतनमूरि (शक ६६६) की कृति कुवलयमाला में ज्योतिष का पर्याप्त निर्देश है । दुर्गदेव का समय १०३२ ई० माना जाता है। इन्होंने अर्धकांड और रिट्ठ समुच्चय की रचना की। उदयप्रभदेव (ई. १२२०) द्वारा आरंभ सिद्धि रचित हुई जिस पर हेम हंस गणि ने वि० सं० १५१४ में टीका लिखी। मल्लिषण (ई. १०४३) ने आयसद्भाव नामक ग्रंथ लिखा। राजादित्य (११२० ई.) ने अंकगणित, बीजगणित एवं रेखागणित विषयक गणित ग्रंथ लिखे। पद्मप्रभसूरि (लगभग वि० सं० १२६४) ने भुवनदीपक लिखा जिसमें ३६ द्वार-प्रकरण हैं । इस पर सिंह तिलक सूरि की वि० सं० १३२६ में लिखी गयी टीका है। वरचंद्र (लगभग १३२४ सं०) ने नारचंद्र और बेड़ाजातक वृत्ति रचित की। ज्ञानदीपिका भी संभवतः इनकी रचना है। अज्ञात कर्ता की ज्ञान प्रदीपिका (आरा) और केरलीय प्रश्न शास्त्र (प्रश्न ज्ञान प्रदीप : लक्ष्मी, वैकटेश्वर प्रेस, १९५४) में प्रायः सभी गाथाएं एक-सी हैं । अर्हद्दास (अट्ठकवि, ई० १३००) ने अट्ठम ज्योतिषग्रंथ लिखा। महेंद्रसूरि (श० ११६२) ने यंत्र राज नामक ग्रह गणित का उपयोगी ग्रंथ बनाया। मेघविजयगणि (वि० सं० १७३७ लगभग) और बाघजी मुनि (वि० सं० १७८३) का नाम भी उल्लेखनीय है।
___ इस प्रकार जैन-न्याय के अनेक ग्रंथ उपलब्ध हैं और उनसे गणितीय न्याय के सिद्धांत निर्मित हो सकते हैं।
उपर्युक्त विवरण में हो सकता है कि कुछ मेधावी जैन साहित्य के गणितज्ञों का उल्लेख न आ पाया हो। फिर भी यह स्पष्ट है कि इस विचारधारा में गणित
१४८ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान