Book Title: Jain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Author(s): Ramchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 169
________________ कमल की भांति वासना के कीचड़ और वैभव के जल से अलिप्त रहते हैं । सूर्य की भांति स्वसाधना एवं लोकोपदेशना के द्वारा अज्ञानान्धकार को नष्ट करते हैं । पवन की भांति सर्वत्र अप्रतिबद्ध रूप से विचरण करते हैं । ऐसे श्रमणों का वैयक्तिक स्वार्थ हो ही क्या सकता है ? श्रमण पूर्ण अहिंसक होते हैं । षटकाय ( पृथ्वीकाय, अपकाय, तेडकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय) जीवों की रक्षा करते हैं । न किसी को मारते हैं, न किसी को मारने की प्रेरणा देते हैं और न जो प्राणियों का वध करते हैं उनकी अनुमोदना करते हैं । इनका यह अहिंसा - प्रेम अत्यन्त सूक्ष्म और गंभीर होता है। अहिंसा के साथ-साथ सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के भी उपासक होते हैं। किसी की वस्तु बिना पूछे नहीं उठाते। कामिनी और कंचन के सर्वथा त्यागी होते हैं । आवश्यकता से भी कम वस्तुओं की सेवना करते हैं । संग्रह करना तो इन्होंने सीखा ही नहीं । ये मनसा, वाचा, कर्मणा किसी का वध नहीं करते, हथियार उठाकर किसी अत्याचारी - अन्यायी राजा का नाश नहीं करते, लेकिन इससे उनके लोक-संग्रही रूप में कोई कमी नहीं आती । भावना की दृष्टि से तो उसमें और वैशिष्ट्य आता है । ये श्रमण पापियों को नष्ट कर उनको मौत के घाट नहीं उतारते वरन् उन्हें आत्मबोध और उपदेश देकर सही मार्ग पर लाते हैं । ये पापी को मारने में नहीं, उसे सुधारने में विश्वास करते हैं । यही कारण है कि महावीर ने विषदृष्टि सर्प चण्डकौशिक को मारा नहीं वरन् अपने प्राणों को खतरे में डालकर, उसे उसके आत्मस्वरूप से परिचित कराया । बस, फिर क्या था ! वह विष से अमृत बन गया । लोक कल्याण की यह प्रक्रिया अत्यन्त सूक्ष्म और गहरी है । 1 इनका लोक-संग्राहक रूप मानव सम्प्रदाय तक ही सीमित नहीं है । ये मानव के हित के लिए अन्य प्राणियों का बलिदान करना व्यर्थ ही नहीं, धर्म-विरुद्ध समझते हैं । इनकी यह लोक-संग्रह की भावना इसीलिए जनतंत्र से आगे बढ़कर प्राणतंत्र तक पहुंची है । यदि अयतना से किसी जीव का वध हो जाता है या प्रमादवश किसी को कष्ट पहुंचता है तो ये उन सब पापों से दूर हटने के लिए प्रातः - सायं प्रतिक्रमण ( प्रायश्चित्त) करते हैं । ये नंगे पैर पैदल चलते हैं। गांव-गांव और नगर नगर में विचरण कर सामाजिक चेतना और सुषप्त पुरुषार्थ को जागृत करते हैं । चातुर्मास के अलावा किसी भी स्थान पर नियत वास नहीं करते । अपने पास केवल इतनी वस्तुएं रखते हैं जिन्हें ये अपने आप उठाकर भ्रमण कर सकें। भोजन के लिए गृहस्थों के यहां से भिक्षा लाते हैं । भिक्षा भी जितनी आवश्यक होती है उतनी ही । दूसरे समय के लिए भोजन का संचय ये नहीं करते। रात्रि में न पानी पीते हैं, न कुछ खाते हैं । १६२ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान

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