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प्रज्ञातिशयविश्रान्त्यादिसिद्धेस्तत्सिद्धिः । - प्रमाणमी० १।१६ इस प्रकार अनुमान प्रमाण से सर्वज्ञता का प्रतिपादन किया गया है । सर्वज्ञता की सिद्धि में बाधक प्रमाण का अभाव
अकलंक ने सर्वज्ञता की सिद्धि में एक ओर यह हेतु दिया है कि सर्वज्ञता की सिद्धि में कोई भी बाधक प्रमाण नहीं है । बाधक का अभाव सिद्धि का बलवान् साधक है । जैसे 'मैं सुखी हूं' यहां सुख का साधक प्रमाण यही हो सकता है कि मेरे सुखी होने में कोई बाधक प्रमाण नहीं है । चूंकि सर्वज्ञ की सत्ता में कोई बाधक प्रमाण नहीं है, इसलिए उसकी निर्बाध सत्ता सिद्ध है। अकलंक ने लिखा है अस्ति सर्वज्ञः सुनिश्चितासंभवद् बाधकप्रमाणत्वात् सुखादिवत् । - सिद्धिवि० इसी सरणि पर बाद के जैन दार्शनिकों ने सर्वज्ञसिद्धि का विस्तृत विवेचन किया है ।
इस प्रकार जैन दार्शनिकों ने प्रमाणशास्त्र की कसौटी पर भी आत्मतत्त्व की चरम प्रतिष्ठा की । भारतीय प्रमाणशास्त्र को जैन दार्शनिकों का यह महत्त्वपूर्ण योगदान है ।
भारतीय प्रमाणशास्त्र को जैन दर्शन का योगदान : १३७