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जैन कला एवं पुरातत्त्व
प्रो०
० कृष्णदत्त वाजपेयी
जैन मूर्तिकला का प्रारंभ कब हुआ, इसका उत्तर देना कठिन है । आद्य ऐतिहासिक युग में जैन श्रमण विचारधारा के जन्म या उसके प्रारंभिक विकास के साथ क्या कला का भी उद्भव हुआ और यदि हुआ तो उसका स्वरूप क्या था, इस बारे में कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता । अनेक विद्वानों की धारणा है कि सिंधु घाटी की ताम्राश्मयुगीन सभ्यता में प्राप्त कतिपय कलाकृतियों में जैन प्रभाव परिलक्षित है। हड़प्पा की एक मानव धड़ मूर्ति को तीर्थंकर माना जाता है । परंतु इस मान्यता को पुष्ट आधार प्राप्त नहीं है ।
मथुरा, उदयगिरि, खण्डगिरि, कौशांबी, विदिशा, उज्जयिनी आदि स्थानों से अनेक प्राचीन अवशेष प्राप्त हुए हैं। उनसे पता चलता है कि ईस्वी सन् के पहले उत्तर भारत में कई जगह जैन स्तूपों, विहारों तथा तीर्थंकर प्रतिमाओं का निर्माण हो चुका था । उड़ीसा की हाथीगुफा से मिले हुए राजा खारवेल के अभिलेख से ज्ञात होता है कि ईस्वी पूर्व चौथी शताब्दी में मगध के राजा नन्द ( महापद्मनन्द ) तीर्थंकर की एक प्रसिद्ध प्रतिमा कलिंग से पाटलिपुत्र उठा ले गये थे । इस मूर्ति को खारवेल मगध से फिर ले आये और उसे उन्होंने अपने राज्य में प्रतिष्ठापित किया । इस उल्लेख से पता चलता है कि तीर्थंकर प्रतिमाओं का निर्माण महापद्मनन्द के पहले प्रारंभ हो चुका था ।
उत्तर भारत में जैन कला के जितने प्राचीन केंद्र थे उनमें मथुरा का स्थान अग्रगण्य है । सोलह शताब्दियों से ऊपर के दीर्घ काल में मथुरा में जैन धर्म का विकास होता रहा। यहां के चित्तीदार लाल बलुए पत्थर की बनी हुई कई हज़ार जैन कलाकृतियां अब तक मथुरा और उसके आस-पास के जिलों से प्राप्त हो चुकी हैं । इनमें तीर्थंकर आदि प्रतिमाओं के अतिरिक्त चौकोर आयागपट्ट, , वेदिकास्तंभ, सूची, तोरण तथा द्वारस्तंभ आदि हैं। मथुरा के जैन आयागपट्ट विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । इन पर प्रायः बीच में तीर्थंकर मूर्ति तथा उसके चारों ओर विविध
३४ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान