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व्यवहार के क्षेत्र में स्याद्वाद और सामाजिक तथा आत्म-शांति के क्षेत्र में अल्प परिग्रह या अपरिग्रह के रूप में प्रकट होती है। ये सब परस्पर अन्तःसंबद्ध हैं। झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह पाप भी हिंसा के ही रूपान्तर हैं। क्योंकि तत्संबंधी भाव भी राग-द्वेष रूप होते हैं । आचार्य अमृतचन्द्र के शब्दों में
आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव हिंसतत् ।
अनृतवचनादिकेवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ।।४२।। आत्मा के शुद्ध परिणामों के घात होने से झूठ, चोरी आदि सभी हिंसा ही हैं, भेद करके तो मात्र शिष्यों को समझाने के लिए कहे गए हैं।
हिंसा-अहिंसा का संबंध सीधा आत्मपरिणामों से है । वे दोनों आत्मा के ही विकारी-अविकारी परिणाम हैं । जड़ में उनका जन्म नहीं होता। यदि कोई पत्थर किसी प्राणी पर गिर जाए और उससे उसका मरण हो जाए तो पत्थर को हिंसा नहीं होती किंतु कोई प्राणी किसी को मारने का विकल्प करे तो उसे हिंसा अवश्य होगी, चाहे पर प्राणी मरे या न मरे। हिंसा-अहिंसा जड़ में नहीं होती, जड़ के कारण भी नहीं होती। उनका उत्पत्ति स्थान व कारण दोनों ही चेतन में विद्यमान हैं । वस्तुत: चिद्विकार ही हिंसा है, झूठ, चोरी आदि चिद्विकार हैं अत: हिंसा
है
व्यवहार में जिसे हिंसा कहते हैं जैसे किसी को सताना, दुःख देना आदि वह हिंसा न हो, यह बात नहीं है । वह तो हिंसा है ही, क्योंकि उसमें प्रमाद का योग रहता है । आचार्य उमास्वामी ने कहा है---'प्रमत्त योगात् प्राणाव्यपरोपणं हिंसा, प्रमाद के योग से प्राणियों के द्रव्यभाव प्राणों का घात होना हिंसा है। उनका प्रमाद से आशय मोह-राग-द्वेष आदि विकारों से ही है । अत: उक्त कथन में द्रव्यभाव दोनों प्रकार की हिंसा समाहित हो जाती है। परंतु हमारा लक्ष्य प्रायः बाह्य हिंसा पर केंद्रित रहता है, अंतरंग में होनेवाली भाव हिंसा की ओर नहीं जा पाता है। अत: यहां पर विशेषकर अंतरंग में होनेवाली रागादि भाव रूप भाव हिंसा की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है। जिस जीव के बाह्य स्थल हिंसा का भी त्याग नहीं होगा वह तो इस अन्तर की हिंसा को भली प्रकार समझ भी नहीं सकता है। ___ यहां यह प्रश्न हो सकता है कि तीव्र राग तो हिंसा है पर मंद राग को हिंसा क्यों कहते हो? किंतु जब राग हिंसा है तो मंद राग अहिंसा कैसे हो जाएगा, वह भी तो राग की ही एक दशा है । यह बात अवश्य है कि मंद राग मंद हिंसा है और तीव राग तीव्र हिंसा है अत: यदि हम हिंसा का पूर्ण त्याग नहीं कर सकते हैं तो उसे मंद तो करना ही चाहिए। राग जितना घटे उतना ही अच्छा है, पर उसके सद्भाव को धर्म नहीं कहा जा सकता है। धर्म तो राग-द्वेष-मोह का अभाव ही है और वही अहिंसा है, जिसे परम धर्म कहा जाता है।
११८ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान