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जो जीव यह मानता है कि मैं परजीवों को जिलाता (रक्षा करता ) हूं, और परजीव मुझे जिलाते (रक्षा करते ) हैं वह मूढ है, अज्ञानी है । और इससे विपरीत मानने वाला ज्ञानी है ।
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जीव आयुकर्म के उदय से जीता है, ऐसा सर्वज्ञ देव ने कहा है । तुम परजीवों को आयुकर्म तो नहीं देते तो तुमने उनका जीवन (रक्षा) कैसे किया ?
जीव आयुकर्म के उदय से जीता है, ऐसा सर्वज्ञ देव कहते हैं । परजीव तुझे आयुकर्म तो देते नहीं हैं, तो उन्होंने तेरा जीवन (रक्षा) कैसे किया ? उक्त कथन का निष्कर्ष देते हुए अन्त में लिखते हैं
"जो मरइ जोय दुहिदो जायदि कम्मोदयेण सो सव्वो ।
तम्हा दु मारिदो दे दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा ।। २५७।। जो मरणिय दुहिदो सो वि य कम्मोदयेण चैव खलु । तम्हा ण मारिदोणो दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा ।। २५८ || " जो मरता है और जो दुःखी होता है वह सब कर्मोदय से होता है । अत: 'मैंने मारा, मैंने दुःखी किया' ऐसा तेरा अभिप्राय क्या वास्तव में मिथ्या नहीं है ? अवश्य ही मिथ्या है। और जो न मरता है और न दुःखी होता है, वह भी वास्तव में कर्मोदय से ही होता है । अत: 'मैंने नहीं मारा, दुःखी नहीं किया' ऐसा तेरा अभिप्राय क्या वास्तव में मिथ्या नहीं है ? अवश्य ही मिथ्या है ।
उक्त सम्पूर्ण कथन को आचार्य अमृतचन्द्र ने दो छन्दों में निम्नानुसार अभिव्यक्त किया है
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"सर्व सदैव नियतं भवति स्वकीय-कर्मोदयान्म रणजीवितदुःखसौख्यम् अज्ञानादि यत्तु पर परस्य कुर्यात्पुमान्मरणजीवितदुःख सौख्यम् ।। १६८ । अज्ञानमेतदधिगम्य
परात्परस्य
पश्यंति ये मरणजीवितदुःखसौख्यम् । कर्माण्यहं कृतिरसेन चिकीर्षवस्ते
१२
मिथ्यादृशो नियतमात्मनो भवति ।। १६६ ॥
इस जगत् में जीवों के जीवन-मरण, सुख-दु:ख, यह सब सदैव नियम से अपने द्वारा उपार्जित कर्मोदय से होते हैं । " दूसरा पुरुष इसके जीवन-मरण, दुःख-सुख का कर्ता है" यह मानना तो अज्ञान है ।
जो पुरुष पर के जीवन, मरण, सुख, दुःख का कर्ता दूसरे को मानते हैं, अहंकार
१. समयसार - आचार्य कुन्दकुन्द - गाथा २५७ - २५८
२. समयसारकलश – आचार्य अमृतचन्द्र – कलश १६८ - १६६
११४ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान