Book Title: Jain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Author(s): Ramchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 84
________________ (पारस) ने 'हयरत्नसमुच्चय' की रचना की थी। __ उत्तरी भारत में अवश्य ही जैन वैद्यक के विद्वानों की परंपरा बहुत प्राचीन रही होगी, परंतु उनके ग्रंथ अनुपलब्ध हैं । सर्वप्रथम हमें मालवा के पं० आशाधर, जो मूलत: मांडलगढ़ (जिला भीलवाडा, राजस्थान) के निवासी थे और ११६३ ई० में अजमेर राज्य पर मुसलमानों का अधिकार हो जाने से धारानगरी में जाकर रहने लगे थे, ने 'अष्टांगहृदय' पर 'उद्योत' या 'अष्टांगहृदयोद्योतिनी' नामक संस्कृत टीका लिखी थी। अब वह अप्राप्य है । आशाधर बघेरवालवंशीय जैन वैश्य थे। उन्होने यह टीका १२४० ई० के लगभग लिखी थी। ____ गुणाकरसूरि ने १२३६ ई० (वि० सं० १२६६) में नागार्जुनकृत 'आश्चर्ययोगमाला' पर संस्कृत में वृत्ति' लिखी थी। इनके पूर्व पादलिप्ताचार्य और नागार्जुन गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में हो चुके थे। उनका निवास-स्थान 'ढंकगिरि' माना जाता है। ये दोनों ही तीसरी-चौथी शताब्दी में जीवित थे और रसविद्या के प्रमुख आचार्य माने जाते हैं। हमें किसी प्राकृत या अपभ्रंश में लिखे हुए वैद्यक ग्रंथ का पता नहीं चला है। परवर्ती अपभ्रंश और राजस्थानी, प्राचीन हिन्दी, ब्रज, गुजराती और कन्नड़ भापा में अवश्य ग्रंथ रचे गये थे। यह साहित्य ई० १६नों शती से पर्व का उपलब्ध नहीं होता। प्रादेशीय भाषा के ग्रंथ प्राय: मौलिक, भावानुवाद, टीका और गुटकों के रूप में गद्य-संग्रह के रूप में मिलने । १६वीं शती के बाद कुछ संस्कृत रचनाएं भी निर्मित हुईं। परंतु ये अधिकांश संग्रह-ग्रंथ हैं। वि० सं० १६६६ से पूर्व नागपुरीय तपागच्छीय चंद्रकीति मूरि के शिष्य हर्षकीतिमूरि ने 'योगचितामणि' (अन्य नाम 'वैद्यकसारोद्धार', 'वैद्य कसारसंग्रह') की रचना की थी। रा० प्रा० वि० प्र० जोधपुर ने इसकी वि० १६६६ की लिपिकालवाली एक प्रति मैंने देखी है। अतः इसका रचनाकाल इससे पूर्व का होना ज्ञात होता है। इसमें पाक, चूर्ण, गुटी, क्वाथ, घत, तैल और मिथक, अध्यायों के अंतर्गत योगों का गंग्रह किया गया है। इसमें फिरंग, चोपचीनी, पारद और अफीम का उल्लेख है । अतः जॉली ने भी इसका यही काल माना है । हंसराजकृत 'भिपक्यक्रचियोत्सव' (हंसराजनिदानम) रोगों के निदान संबंधी ग्रंथ है । यह भी १७वीं शती की रचना है। वि० सं० १७२६ में तपागच्छीय हस्तिरुचिगणि (उदयरुचिगणि के शिष्य) ने 'वैद्यवल्लभ' नामक ग्रंथ की रचना की थी। इसमें संक्षेप में रोगों के निदानलक्षण के साथ चिकित्सा का भी वर्णन हुआ है । इसमें ज्वर, स्त्री-रोग, कासक्षयादि रोग, धातु रोग, अतिसारादि रोग, कुष्ठादि रोग, शिराकर्णाक्षि रोग के प्रतिकार और स्तभन पर मुरासाहि गुटिका आदि----ये आठ अध्याय हैं। यह ग्रंथ वैद्यसमाज में बहुत लोकप्रिय रहा है। सं० १७२६ में मेघभट्ट नामक विद्वान् ने इस पर संस्कृत टीका लिखी थी। इसका पद्यानुमय राजस्थानी अनुवाद भी हुआ है। जैन आयुर्वेद साहित्य : एक मूल्यांकन : ७३

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