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प्रकार के मनोहर अलंकरण मिलते हैं। स्वस्तिक, नन्द्यावर्त, वर्धमानक्य, श्रावत्स, भद्रासन, दर्पण, कलश और मीनयुगुल---इन अष्टमंगल द्रव्यों का आयागपट्टों पर सुन्दरता के साथ चित्रण किया गया है। एक आयागपट्ट पर आठ दिक्कुमारियां एक-दूसरे का हाथ पकड़े हुए आकर्षक ढंग से मंडल-नृत्य में संलग्न दिखायी गयी हैं। मंडल या चक्रवाल अभिनय का उल्लेख ‘रायपसेनिय सूत्र' में भी मिलता है। एक अन्य आयागपट्ट पर तोरण द्वार तथा वेदिका का अत्यन्त सुंदर अंकन मिलता है। वास्तव में ये आयागपट्ट प्राचीन जैन कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इनमें से अधिकांश अभिलिखित हैं, जिन पर ब्राह्मी लिपि में लगभग ई० पू० १०० से लेकर ईसवी प्रथम शती के मध्य तक के लेख हैं। ___मथुरा कला की मूर्तियों में हाथ में पुस्तक लिए हुए सरस्वती, अभय मुद्रा में देवी आर्यवती तथा नंगमेश की अनेक मूर्तियां विशेष उल्लेखनीय हैं। तीर्थकर प्रतिमाएं प्राय: ध्यान-मुद्रा में बैठी हुई मिली हैं। कुछ कायोत्सर्ग मुद्रा में भी हैं। कुषाण, गुप्त तथा मध्य काल की अनेक सर्वतोभद्रिका प्रतिमाएं भी उपलब्ध हुई हैं। कलाकारों ने विभिन्न तीर्थकर मूर्तियों के निर्माण में दिव्य सौंदर्य के साथ आध्यात्मिक गांभीर्य का जैसा समन्वय किया है उसे देखकर पता चलता है कि भावाभिव्यक्ति में ये कलाकार कितने अधिक कुशल थे।
प्राचीन बौद्ध एवं जैन स्तूपों के चारों ओर वेदिका की रचना का प्रचलन था। वेदिका-स्तंभों आदि के ऊपर स्त्री-पुरुषों, पशु-पक्षियों, लता-वृक्षों आदि का चित्रण किया जाता था। कंकाली टीले से प्राप्त जैन वेदिका स्तंभों पर ऐसी बहत-सी मूर्तियां उत्कीर्ण हैं जिनमें तत्कालीन आनंदमय लोकजीवन की सुंदर झांकी मिलती है। इन मूर्तियों में विविध आकर्षक मुद्राओं में खड़ी स्त्रियों के चित्रण अधिक हैं। ___ सौंदर्य के अनिंद्य साधन के रूप में नारी की उपस्थिति प्राचीन जैन कला में विशेष रूप से उल्लेखनीय है । हमारे कलाविदों ने कला के उस रूप की अभिव्यक्ति को आवश्यक माना, जिसके द्वारा न केवल लोकरंजन की सिद्धि हो अपितु समाज और धर्म को निष्क्रिय एवं निर्जीव होने से बचाया जा सके । मूर्तिकला में नारी के श्री रूप को प्रतिष्ठापित कर उन्होंने अपने इस स्पृहणीय उद्देश्य को चरितार्थ किया।
मथुरा के अतिरिक्त उत्तर भारत में अन्य अनेक केंद्र थे, जिनमें उत्तर गुप्तकाल तथा मध्यकाल में जैन कला का विस्तार होता रहा। वर्तमान बिहार तथा उत्तर प्रदेश में अनेक स्थान तीर्थंकरों के जन्म, तपश्चर्या तथा निर्वाण के स्थान रहे हैं । अत: यह स्वाभाविक ही था कि इन स्थानों पर धर्म, कला तथा शिक्षा संस्थाओं की स्थापना होती। कौशांबी, प्रभास, श्रावस्ती, कंपिल्य, अहिच्छत्रा, हस्तिनापुर, देवगढ़, राजगृह, वैशाली, मंदारगिरि, पावापुरी आदि ऐसे ही स्थान थे। इन स्थानों से जैन कला की जो प्रभूत सामग्री उपलब्ध हुई है उससे पता
जैन कला एघं पुरातत्त्व : ३५