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के अनुसार अपनी भौतिक आवश्यकताओं को नियमित करें। कुछ जैन सन्तों ने अपनी साधना तथा ज्ञानोत्कर्ष के कारण शासकों का ध्यान अपनी ओर खींचा। अकबर ने 'हरविजयसूरि' को फतहपुर सिकरी आमंत्रित किया जहां उसने पहले अबुल फजल से धर्म व दर्शन पर विचार-विमर्श किया, फिर स्वयं सम्राट से । अंत में 'हरविजयसूरि' ने सम्राट को साग्रह मनाकर यह फरमान निकलवाया कि छह महीनों तक पशु-वध प्रतिबंधित किया जाए, मृत पुरुषों की संपत्ति को राज्य द्वारा अधिग्रहण किया जाए तथा पकड़े हुए व पिंजरे में बंद पक्षियों को छोड़ दिया जाए। इससे सिकरी में मछली पकड़ना रोक दिया गया । 'जिनचन्द्रसूरि' ने भी अकबर से यह शाही फरमान जारी करवाया - कि प्रतिवर्ष आषाढ़ मास में एक सप्ताह तक पशु-हिंसा न की जाए। जैन संप्रदाय के इतिहासों में इस प्रकार के अनेक दृष्टांत भरे पड़े हैं । ये इस बात का प्रमाण हैं कि जैन सन्त अहिंसामूलक सामाजिक व्यवस्था को लागू करने में कितने सचेष्ट थे । अहिंसा के प्रभाव का जाज्वल्यमान उदाहरण हमें महात्मा गांधी ने दिया जो रायचंद्र को अपना गुरु मानते थे, जिनके प्रभाव से उनमें 'अहिंसा' संक्रान्त हुई । महात्मा गांधी को वास्तव में 'महावीर' का अवतार ही माना जा सकता है ।
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यह भी ठीक है कि अहिंसा के सिद्धांत ने जैन मतानुयायिओं को अपने कर्तव्य कर्मों से नहीं रोका, विशेषतः जब युद्ध के प्रसंग उठ खड़े हुए। राजस्थान, गुजरात तथा कर्नाटक में जैन ऊंचे अधिकार पद पर अवस्थित थे, जिनमें कुछ सेनाध्यक्ष तक थे । मैं कुछ ही उदाहरण दूंगा । 'विमल' अपने सम्राट भीम प्रथम के साथ मोहम्मद गजनी से लड़ा था । जोधपुर के रत्नसिंह भंडारी ने मराठों से युद्ध किया । शमशेर बहादुर, महाराणा विजयसिंह का सेनापति रहा । कुंभलमेर (उदयपुर) के आशाशाह ने महाराणा प्रताप के पिता उदयसिंह की जो अल्पवयस्क शिशु था---: -रक्षा की, जब पन्ना धाय ने बनवीर के पंजे से उसे छुड़ाने की प्रार्थना की । महाराणा प्रताप के मंत्री भामाशाह ने मुगल सम्राट अकबर से युद्ध करने के लिए अपनी समस्त संपत्ति राणा को भेंट कर दी । भामाशाह स्वयं महान् योद्धा था । जयपुर के दीवान रामचन्द्र ने बहादुरशाह से पराजित सवाई जयसिंह को आमेर का राज्य पुनः जीतकर सौंपा। ये दृष्टान्त प्रमाणित करते हैं कि जैनों ने अपने गंभीर दायित्व से कभी मुंह न मोड़ा, न अहिंसा के बहाने कठोर कर्मों से पराङ्मुख हुए। बल्कि वे पूरी निष्ठा से अपने राज्य की सीमाओं को शत्रुओं से सुरक्षित रखने में लगे रहे। इसके प्रकाश में, यह विस्मय की बात नहीं कि जैनों ने स्वदेश के स्वतंत्रता आंदोलन में भी अपना योग दिया है । संक्षेपतः जैनों के क्रियात्मक क्षेत्रों में ये योगदान के स्वरूप रहे हैं। मुझे विश्वास है कि विद्वानों की यह नक्षत्रमंडली - इस सेमिनार में भाग लेकर अपने विचार-विमर्शो से जैन विद्या के अध्ययन को बढ़ावा देने में पूरा योग देगी, जिसमें हमें अपनी राष्ट्रीय धरोहर के समझने तथा
२४ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान