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का पाठ पढ़ाता है । जो निशक वीर नहीं बन सकता, वह जैनी नही हो सकता । 'जैन' नाम हो इस बात की साक्षी है। इस नाम का निकास 'जिन' शब्द से है, जिसका अर्थ है 'जीतने वाला' (Congueror ) ! दूसरे शब्दों में कह तो विजयी वीरों का धर्म जैनधर्म है । इसलिए इस धर्म का उपासक यही हो सकता है जो पूर्ण निशक हो। जिसे न इस लोक का भय हो और न परलोक का डर हो। इस धर्म का श्रद्धानी न मौत से डरता है-न रोग से घबराता है और न श्राफत से भयातुर होता है। सत्य की तरह वह सदा प्रकाशवान् और सिंह के समान वह हमेशा निशक है । अव बतलाइये जैन वीरों की संख्या गिनाई जाय तो कैसे गिनाई जाय ?
जैनधर्म अनादिकाल से है, क्योंकि वह प्राकृतिक धर्म है । एक विज्ञान मात्र है | निसर सत्य है । यह हमारा कोरा प्रलाप नहीं है; किन्तु उसका स्वरूप ही इस बात का प्रमाण है । उस के सैद्धान्तिक तत्वों की तुलना विज्ञान-सिद्ध बातों से कीजिये तो फिर देखिये हमारा कहना ठीक है या नहीं। एक मोटीसी बात तो श्राप सोच देखें। दुनियां में जिसे भी ज़रा समझ है - जो सचेतन है, वह विजय का श्राकांक्षी है। पशुपक्षी और घोध बच्चे भी अपने पास की वस्तु पर अधिकार जमा लेने के लोलुपी होते हैं । यह विजयाकांक्षा प्राकृत है और जैनधर्म भी विजयी होने की शिक्षा देता है । इस तरह वह प्रकृति का अनुरूप ठहरता है। हॉ, इतनी बात सवय है कि
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