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( २६ ) याधित है। मोटी बात तो यह है कि यदि सम्प्रति के समय में भद्रवाहु जी को हुश्रा मान लिया जाय तो सारी जैनकालगणना ही नष्ट-भ्रष्ट हुई जाती है और यह हो नहीं सकता, क्यों कि 'त्रिलोकप्रज्ञप्ति' जैसे प्राचीन ग्रन्थ से इस काल गणना का समर्थन होता है और उधर हाथी गुफा का खारवेल वाला शिलालेख भी इसी बात का द्योतक है, क्योंकि उसमें उल्लिखित हुई सभा में अंगशान के लोप होने का जिकर है। यदि ऐसा न माना जाय और सम्प्रति के समय में ही भद्रवाहु को हुश्रा माना जाय ता श्रङ्गशान-धारियों का समय जैनाचार्य कुन्दकुन्द उमास्वाति आदि के बाद तक प्रा ठहरेगा, जो नितांत श्रसम्भव है।
इस दशा में शायद यह प्रश्न किया जाय कि यदि सम्प्रति जैन चन्द्रगुप्त नहीं है, फिर पुण्याश्रव और राजावलीक थे में दो चन्द्रगुप्तों का उल्लेख क्यों है और क्यों दूसरे चन्द्रगुप्त को जैन लिया है ? उसका सीधा सा उत्तर यही है कि जिस प्रकार सिंहलीय चौद्ध लेखकों ने दो अशोको का उल्लेख करके इतिहास में गड़बडी खडी की है, उसी तरह पीछे के इन जैन लेखकों ने अपने चन्द्रगुप्त और अशोक को बोद्धों के अशोक से भित्र प्रकट करने के लिए, उनका उल्लेख अलग और भिन्न रूप में किया है। राजावलीक थे का आधार सिंहलीय इतिहास ही प्रतीत होता है। अतः चन्द्रगुप्त मौर्य को जैन न मानना
श्री सत्यफेतु जी की इस मान्यता का खण्डन विशेष रूप से हम