Book Title: Jain Veero ka Itihas
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Jain Mitra Mandal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ను . JOPN. C MARVA + W जैन-वीरों का इतिहास AAPPTETTERNEYEARNA है लंधी मोलीजा लेखकबाबू कामताप्रसाद जैन, एम. चार ए पी. मॉन सम्पादक “वीर karist.tistesansoorat-relattornuvaaraadhana 'य कर्म वीर कि मृत्यु का भी ध्यान कुछ धरते न था थे युद्धवीर कि काल से भी हम कभी डरत न थे। थे दानवीर कि देह का भी 'लोभ हम करत न य । हर थे धर्मवीर कि प्राण के भी मोह पर हटते न थे।" LOLoto प्रकाशक जैन मित्र मंडल धर्मपुरा, देहली। प्रथमवार १०००१ अप्रल, १९३९ । मूल्य ।) अाने Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aकाशक जैन - मित्र मंडल धर्मपुरा, देहली मुद्रकमहारथी प्रेस चांदनी चौक, देहली Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द | ग्नीय इतिहास अधकार में हैं और जैन इतिहास की उससे कुछ अच्छी दशा नही हैं । श्रलभ्य और श्रश्रुतपूर्व इतिहासिक सामिग्री से भरे हुये अनूठे जैनग्रन्थ श्राज भी जैन भण्डारों के अज्ञात कोनों में पड उनकी शोभा बढ़ा रहे है । अब भला बताइये, जैन धीरों का एक प्रमाणिक इतिहास लिखा जाय तो कैसे ? इतने पर भी जब मुझे जैनमित्रमण्डल दिल्ली के उत्साही मन्त्री जी ने एक ऐसा इतिहास लिखने का श्राग्रह किया, तो मै उनको टाल न सका। जितना कुछ मेरा श्रवतक का अध्ययन श्रीर अनुसन्धान था, उसी के बल पर मैने 'जैन चोरों के इतिहास' की एक रूपरेखा लिखे देना उचित समझा ! उसी निrय का यह फल पाठकों के सम्मुख उपस्थित है । भा मेरे कई उल्लेखों में, सम्भव है, अन्य विद्वान् सहमत न हो, कन्तु इस डर से में उनकी तीच्ण बुद्धि को सतुष्ट करने के झमेले में नहीं पटा है, क्यों कि ऐसा करने से पुस्तक सर्वसाधारण के मतलब की न रहतीं। हॉ, उन जैसे तार्किक पाठकों के सन्तोष के लिये मैं यह बता देना उचित समझता कि मैंने प्रत्येक आपत्तिजनक नई बात का प्रामाणिक वर्णन अपने 'संक्षिप्त जैन इतिहास' के दूसरे भाग में कर दिया है, जो प्रेम में है। वे चाहें तो उसे पढ कर श्रात्म सन्तुष्टि कर सकते हैं । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 3 ) अन्त में जैन वीरो के इस सक्षिप्त विवरण को उपस्थित करते हुए मुझे हर्ष है । वह इस लिये कि इन वीरवरों का महान् त्याग और कर्तव्यनिष्ठा समाज में नवजागृति की लहर उत्पन्न करने में और जैनों के नाम को लोक में चमकाने में सहायक होगा । यदि ऐसा हुआ तो मैं अपने प्रयत्न को सफल हुना समभुंगा ! किन्तु इस सब-कुछ का श्रेय श्री जैन-मित्र मण्डल, दिल्ली के उत्साही कार्य कर्ताओं को है, जिनके निमित्त से यह पुस्तक प्रकाश में श्रा रही है। अतः मैं उनका और अपने प्रिय मित्र प्रो० हीरालाल जी एम. ए. का जिन्होने उपयोगी भूमिका लिख देने का कष्ट उठाया है, श्राभारी हुए बिना नही रह सकता | इतिशम् । वन्देवीरम् ! अलीराज ( एटा ) २८-३-१९३० } विनीत- कामनाप्रसाद जैन Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका महापुरुषों का इतिहास समाज का जीवनग्स है। उनके चरित्र म्मरण से हृदय में पवित्रता और दृढ़ता का संचार होता है तथा शरीर में तेज पर रफ़र्ति उत्पन्न होती है। उससे हमें शान्ति के समय कार्यपटुता और विपत्ति के समय धैर्य व सतताभियोग की शिक्षा मिलती है। उच्च विचार अंग सरल जीवन का जो पाठ हम सहत्र उपदेश सुनकर भी नहीं मीख पाते वह महापुरुषों की जीवनियों से अनायास ही हमारे हृदय पर अफित हो जाता है। जिन समाज व व्यक्ति के सन्मुख कुछ ऐसे आदर्श उपस्थित नहीं है वह मृतक के समान ही है। जैनी प्रारम्भ से ही वीगेपासक रहे ह । जो अपने शत्रुओं पर जितनी विजय प्राप्त कर सकता है उतना ही उसमें परमात्मत्य प्रकट हुश्रा समझा जाता है। जिसने अपने सम्पूर्ण शत्रों को जीत लिया वही जैनियों का परमात्मा है। यह कहना बडी मारी भूल है कि जैनधर्म में केवल श्रात्मा की ओर ही ध्यान दिया गया है और शरीर का कोई महत्व नहीं गिना गया। जैनमतानुसार शरीर और अ.त्मा की उन्नति में बड़ा घनिष्ट सम्बन्ध है, यहां तक कि जब तक मनुष्य का शरीर सम्पूर्ण हीनताश्रो से रहित होकर वज्र के समान नहीं होजाता अर्थात् वज्र वृषभनागच संहनन नहीं प्राप्त कर लेता तब तक वह मोक्षपद का अधिकारी नहीं हो सकता। इस सिद्धान्त के होते हुए इसमें आश्चर्य ही क्या है यदि जैन समाज के भीतर ट नो पात्मिक चीरता और शारीरिक Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरता के श्रादर्शरूप अनेको महापुरुषों के दृष्टान्त विद्यमान हो। आश्चर्य तो तब होगा यदि उपयुक्त मत में विश्वास रखते हुए भी वह ऐसे उदाहरणों से खाली हो। वस्तुतः जैन इतिहास उक्त दोनो प्रकार के वीर पुरुषों के प्रमाणों से भरा हुआ है। इनमें से बहुत नहीं तो कुछ ऐसे भी वीर पुरुष हैं जिन्होंने ऐतिहासिक काल में धर्मप्रेम के साथ-साथ देश सेवा के लिये । भारी बुद्धिमत्ता और असाधारण पराक्रम का परिचय देकर भारतवर्ष के इतिहास में चिरस्थायी ख्याति प्राप्त की है । तथा जिनके जिनमतावलम्बी हाने में किसी को कोई सन्देह नहीं है। पूर्व भारत के कलिंगाधिपति खारवेल, दक्षिण के गंग सेनापति समरधुरंधर चामुण्डराय व होयसल मत्री महाप्रचण्डदण्ड नायक गंगराज पश्चिम के गुजरात मंत्री वीरवर वस्तुपाल व तेजपाल तथा मेवाड़ सेनापति भामाशाह इसी प्रकार के वीर योद्धा हुए हैं। खेद का विषय है कि बहुत समय से जैनियों ने अपने इन नर रत्नो का संस्मरण छोड दिया और उनके आदर्श से च्युत होकर अपने आचरणों को ऐसा बना लिया जिसले संसार । को यह भ्रम होने लगा कि जैन धर्म कायरता का पोषक है। धीरे-धीरे यह भ्रम इतना प्रपल होगया कि स्वयं भारतवर्ष के कुछ प्रतिष्ठित विद्वानों ने अपना यह मत प्रकट कर दिया कि इस देश को भीरु बनाकर उसे पारतंत्र्य के वधन में वांधने का दाप जैनधर्म को ही है। कितने भारी कलंक की बात है ? सच्चे क्षत्रिय वोरों द्वारा प्रतिपादित तथा वीरात्माओं द्वारा स्वीकृत और सम्मानित जैनधर्म की उसके वर्तमान अनुयायियों के हाथों यह दुर्गति, कि देश में सच्चे वीर उत्पन्न करने का श्रेय तो दूर रहा उलटा उसे कायरता-प्रसार का अप Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) यश मिला । अहिंसा जैसे उच्च सिद्धान्त को जैनियो ने अपनी करनी द्वाग हास्यास्पद यना रक्वा था किन्तु आज उस सिद्धान्त का सच्चा जहर संसार को दिख गया। आज जैनधर्म के गर्व का दिन है। किन्तु जैन समाज को लजित होना पडता है। उच्च सिद्धान्तों का अपात्रों के हाथों में कहां तक अधःपतन हो सकता है, जैन समाज इस यात का जीता जागता उदाहरण है। हर्ष की बात है कि जैन समाज के इन दुदिनों का अव अन्त श्राया दिखाई देता है। हमाग ध्यान अव हमारे वीर पुरुषों के चरित्र खोज निकालने में लग गया है। इन चरित्रों के प्रकाश में आने से हमें दो लाभ होने की आशा है। एक तो पूर्वोक्त कलंक का परिमार्जन हो जायगा और दूसरे समाज पुनः अपने भृले हुए सच्चे आदर्श की ओर झुक जायगा। किन्तु अभी इस कार्य का श्रीगणेश मात्र हुश्रा है । जैनियों की पूरी 'वीर चरितावली' प्रकट होने में अभी विलम्ब है। वर्षों के प्रमाद से खोई हुई वस्तु घर ही में होते हुए भी शीघ्र हाथ नहीं लगती । उसको ढढ निकालने तथा वर्षों की मलिनता को धो मांजकर उसके प्रकृत निर्मल स्वरूप को प्रकट करने के लिये समय और परिश्रम की आवश्यकता होती है। प्रस्तुत पुस्तिका इस कार्य में दिक-प्रदर्शन का कार्य करेगी। इसमें पुराण-काल से लगाकर १५ वी १६ वी शताब्दि तक के अनेक जैनगज कुलों व वीर पुरुषों का निर्देश किया गया है। लेखक ने इसे जैन चोरी का इतिहास' नाम दिया है यह उनकी इस विषय में उच्च श्राकांक्षाओं का द्योतक है । मेरी समझ में अभी यह उस इतिहास की प्रस्तावना मात्र “जैन वीरों के इतिहास" की रूप-रेखा उपस्थित करना है। किन्तु पेले एक सर्वात Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची। १ प्राक्-कथन १ मिनेन्डर २ वीरामणा श्रीऋषभदेव है । २ नहपान ३ तीथंकर चक्रवर्ती १४ ३ रुद्रसिंह ४ तीर्थकर अरिएनेमि १६ / १० सम्राट विक्रमादित्य ५ भगवान महावीर और ११ प्रान्तवशी जैनवीर उनके समय के जैनवीर १७ १शात कर्णि वि० १ राष्ट्रपति चेटक २ हाल २ सम्राट श्रेणिक २०/ १२ वीर भवड ३ भगवान महावीर | १३ जैनराजा पुष्पमित्र ३८ ४ राजा उदायन २३ / १४ गुजरात के वल्लभीराजा ३६ ५ राजा चंदुप्रधोत् २४ १५ हैहय व कलचूरि ६ गजकुमार जीवन्धर २४ । जैनवीर ७ सम्राट अजातशत्रु २४ । राजा शङ्करगण ६ नन्दसाम्राज्य के जैनवीर २५ २,, कर्णदेव १ सम्राट नन्दिवर्द्धन २६ / १६ गुजरात के चालुक्य २ महानन्द योद्धा ३ नन्दराज १ कीर्तिवर्मा ७ मौर्यसाम्राज्य के जैनशर २७ २ विनयादित्य १ मम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य २७ ३ विजयादित्य २,,विन्दुसार व श्रशोक ३० ४ विक्रमादित्य ३ ,, सम्प्रति ३० । १७ गुजरात के गएकट ८ सम्राट ऐलखारवेल ३१/ राजा & भारतीय विदेशी जैनवीर ३४ । १ प्रमृतवर्ष ४० ४१ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ (१०) पृष्ठ २ कक प्रथम ४१ / २ सेनापति अमरचंद ३ चावड़वंश सुराण ८ सोलंकी वीर-श्रावक ४२ ३१ जोधपुर राज्य के १ सम्राट् कुमारपाल वीर श्रावक ५७ १६ बघेले राज्यके जैन-वीर ४४ मोहनजी १ वीरधवल ४५ २ कृष्णदासजी : ५७ २ वस्तुपाल-तेजपाल ३ इन्द्रराज-धनराज ५८ २० वीर सुहृद्ध्वज ३२ जयपुरराज्य के जैनयोद्धापक्ष २१ चन्देले जैन-वीर १ अमरचन्द दोवान ५६ १ धड़ कीर्तिपाल ३३ कोटकाङ्गणा के जैन २ पाहिल दीवान २२ परमारवंशी जैनराजा | ३४ धर्मवीर धर्मचन्दजी ६० १ भोज | ३१ दक्षिणभारत के जैनवीर ६१ २ नरवर्मा । १ वीर वाहुवलि ६१ २३ कच्छप विक्रमसिह २ प्राचीन पाण्ड्य-चोल २४ वीर राजाईल र चेर ६२ २५ मंजवंश के जैनराजा ३ चालुक्य जयसिंह २६ नाडाल के चौहान वीर ५० प्रथम ६३ २७ हस्तिकुण्डी के गठौर ५१ ३४ राष्ट्र वीरश्रमोघवर्ष २८ जैनवीर कङ्कक आदि २६ मेवाड़ राज्यके वीर ५२ . ५ गगवंश मारसिंह व १ भामाशाह । सेनापतिचामुण्डराय २ श्राशाशाह आदि ३० चीकानेर राज्यके ६ होय्सलवंश-विष्णुवर्द्धन जैन-वीर ५४ नरसिंहदेव-विडिदेव , १ बच्छावत जैनी सेनापति गङ्गराज-हुन्न - - - ५४ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ट । श्रादि १७ सांतारवंशी जैनराजा७४ ७ कादम्बवशी शांतवर्मा - धरणीकोट के जैनीश्रादि राजा ७५ - कुरुम्ब-कमण्डु-प्रभु ७१ . १३ विजयनगरसाम्राज्य : शिलाहार गजा भोज के वीर ७५ आदि ७२ १ सेनापति इरुगप्य ७५ १० पाण्डवंश-वीर २ ,, वैचप्य ७५ पागड्य ७२ २० प्रान्तीय-शासक " चालराजय जैनी चंगलबंश २१ मैसूर का गजवंश ७६ १२ कोगलवश ७३ ३६ जैन वीरगनायें १३ चेवश के वीर ७३ १ खारवेल की गनी १४ पल्लववंश के जा २ भैरवदेवी महेन्द्रवर्मन ३ सवियब्वे , १५ कलचग्विशी ४ जकमञ्चे विजलदेव ७४ ३७ उपसंहार " कलभ्रवशी जैन धीर ७४ ७०।२८ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धाशुद्धि पत्र । पृष्ट पति अशुद्ध शुद्ध Congueio Conqueio ३ २० के लोलुपी के लिये लोलुपी कल्यकाल कल्पकाल इसी के इसो की ५११ निवृत्ति निवृत्ति कि वीरोंके चरत्र कि इन वीरोंके चरित्र चकाचौंध चकाचौंध श्रावधि हा श्रौषधि हो launa Laina श्रव उन बतलाने बतलाये उन्न १३ १५ यये गये विचार विहार सालहवें सोलहवें सेनपति सेनापति १४ ५ लगध मगध २२ २९ विचार विचर १३ लिया' शब्द के आगे निन्नशब्दयढानेचाहिये"आखिर एक मुनिराज के संसर्ग में श्राकर वह जैनी हो गया और तर उदयन ने उसे मुक्त कर दिया। वह जाकर ६ अजातशत्रु अजातशत्रु राजा २६ २२ अमरत्य अमात्य २७ २१ इन राज्य इनके राज्य २९६ ता तो Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति १३ २६ २० 2. ५ W ३३५ ३३ १६ ३५ १० अशुद्ध गजवलीक थे राज वलीक थे अप शधरों चेदिवशज खारवेल केपूर्वज भूपिक पाण्डय खाखेल भारतोद्धार वीजरधर वाली खारसेल माहयमिका धर्मानुपायी नत्रिय क्षत्रिय अधृत पाल पाञ्चालय महेन्द्र शासवाधिकारी सन् १२१६ श्रर्णकुमारपाल बद्राड श्राश्र केवल शुद्ध राजावलीकथे राजावलीकथे अपने घंशधरी चेदिवंशवर्द्धन खारवेल के पूर्वज मूषिक पारड्य खारवेल भारतोद्धारक वजिरघरवाली खारवेल माध्यमिका धर्मानुयायी क्षत्रप क्षत्रप अछुत ऑफ पाञ्चाल HEFE (Achandai) शासाधिकारी इसने सन् १२१६ अर्ण कुमारपाल वहाड़ आश्रय । न केवल a ४४ १३ ४४ १५ ४६८ smMRorat Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ट પૃષ્ઠ પૃષ્ઠ १७ ૫૭ દર પૂ १८ ५८ ૫ २१ १६ ve દર ६४ ६४ ६४ ६७ ६७ પ્ ६५ १६ ६६ ६६ ૩૭ ६८ ६८ ६८ ६८ ६८ पंक्ति ६६ 8 JJ १७ २१ 9 १२ २० २१ ३ 6 င် १२ १६ २० १५. देसने बीकानेर जी-पुत्र मोहत डीवॉमन १ चालु का राह ( १४ ) श्रशुद्ध राजा का चोर 1 पादपत्र जैधर्म मोगवर्ष मान्यरवेट सिहेल वौलम्बकुलांतक चामुण्डराय कौशल एक शुभप्रणाम अजित सेवस्वमी त्यस्त निर्तिप्त चामुण्डराय हरशुराम हाटसल चामुण्डराय श्रवणवल्लभ देखने बीका शुद्ध जी के पुत्र मोहणोत डीनॉयन " राजा की श्राज्ञा की चेर पादपद्मो जैनधर्म अमोघवर्ष मान्यखेट सिंहल चालुक्य राठौर नोलस्त्रकुलांतक चामुण्डराय कौशल और शुभ प्रयास अजितसेनस्वामी व्यस्त निर्लिप्त चामुण्डराय परशुराम हॉयसल चामुण्डराय श्रवणबेलगोल Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) पृष्ट ७० पक्ति १८ ७४७ थी ११ .. ७७ अशुद्ध शुद्ध कादम्वशी कादम्ववशी प्रचारक प्रचार "जिस समय जैनो का केन्द्र था" यह वाक्य काट दो। थो वुजानन बुचानन होटसल होयसल श्रवणवेलम्म श्रवणवेलगोल वीर-पूर्ण वीरता-पूर्ण जैनो को राष्ट्र "जैनों का राष्ट्र" इस पुरण पुराण लिये लिये रवार वेल खारवेल जरसय्या जरसप्पा जहां रणागण जहां शत्रु रणागण उठान उठाना धारण धारणा अपन आपके भविष्यदा भविष्यदत्त आत्म गेरवाश्चित श्रान्मा को गौरवान्वित काविल कालिब राजाश्रम राजाश्रय इस गप्प इरुगप्प पार्थिक पार्थिव ८५ ८५ १२ १४ Page #17 --------------------------------------------------------------------------  Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन भारत aaurumal NEL u. MAINTINinama HIANIKI स झापति पाउ सोच यमुना समाल विदेह कामालप चमावणी MARWAINAwam" Intuimma धे - नर्मदा नामपदम देवमासापथ सायरा Page #19 --------------------------------------------------------------------------  Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 35 77: fag: || जैन वीरों का इतिहास ->+Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य और प्रेस द्वारा प्रचार करके धर्म-प्रभावना करने का मूल्य ही नहीं मालूम है ! किन्तु रौभाग्य से अब हमारे उगते हुए समाज का ध्यान इस ओर गया है और वह अब इस टटोल में भी है कि हमारे पूर्वजों ने धर्म, देश और जाति के लिए कौन-कौन से कार्य किये १. इसी भावना का परिणाम है कि हमारे साहित्य में श्रव उन चमकते हुए वीर नर-रत्नों का प्रकाश प्रदीप्त हो चला है, जो अपनी सानी के अनूठे हैं। हमें विश्वास है, कि यह प्रकाश जमाने की उच्छ जलता की धजियां उड़ा देगा और जैन युवकों के हृदयों को पूर्वजो की गुण-गरिमा से चमका कर इतना प्रबल बना देगा कि फिर किसी को साहस ही न होगा कि वह जैनों और जैनधर्म को हेय भीरुता का आगार बता सके। 'जिन खोजा तिन पाइया' यह बिल्कुल सच है, किन्तु विरले ही खोज-खसोट करके सत्य को पाने का प्रयास करते "हैं। यही कारण है कि जैनधर्म के विषय में प्रमाणिक साहित्य सुलभ हो चलने पर भी लोग उसके विषय में सत्य को नहीं पा सके हैं। किन्तु अब उन्हें कान खोल कर सुन लेना चाहिये कि वह भारी गलती में है-नहा अन्धकार में पड़े हुए है। आर्य लोक में जैनी और जैनधर्म ने धर्म, देश और लोक के लिए इतनी लाजवाब कुरवानियां की है कि उनको उंगलियो पर गिना देना विल्कुल असम्भव है। इसका एक कारण है और वह यह कि जैनधर्म अपने प्रत्येक अनुयायी को वीर बनने Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) का पाठ पढ़ाता है । जो निशक वीर नहीं बन सकता, वह जैनी नही हो सकता । 'जैन' नाम हो इस बात की साक्षी है। इस नाम का निकास 'जिन' शब्द से है, जिसका अर्थ है 'जीतने वाला' (Congueror ) ! दूसरे शब्दों में कह तो विजयी वीरों का धर्म जैनधर्म है । इसलिए इस धर्म का उपासक यही हो सकता है जो पूर्ण निशक हो। जिसे न इस लोक का भय हो और न परलोक का डर हो। इस धर्म का श्रद्धानी न मौत से डरता है-न रोग से घबराता है और न श्राफत से भयातुर होता है। सत्य की तरह वह सदा प्रकाशवान् और सिंह के समान वह हमेशा निशक है । अव बतलाइये जैन वीरों की संख्या गिनाई जाय तो कैसे गिनाई जाय ? जैनधर्म अनादिकाल से है, क्योंकि वह प्राकृतिक धर्म है । एक विज्ञान मात्र है | निसर सत्य है । यह हमारा कोरा प्रलाप नहीं है; किन्तु उसका स्वरूप ही इस बात का प्रमाण है । उस के सैद्धान्तिक तत्वों की तुलना विज्ञान-सिद्ध बातों से कीजिये तो फिर देखिये हमारा कहना ठीक है या नहीं। एक मोटीसी बात तो श्राप सोच देखें। दुनियां में जिसे भी ज़रा समझ है - जो सचेतन है, वह विजय का श्राकांक्षी है। पशुपक्षी और घोध बच्चे भी अपने पास की वस्तु पर अधिकार जमा लेने के लोलुपी होते हैं । यह विजयाकांक्षा प्राकृत है और जैनधर्म भी विजयी होने की शिक्षा देता है । इस तरह वह प्रकृति का अनुरूप ठहरता है। हॉ, इतनी बात सवय है कि 1 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) वह मनुष्य को सावधान कर देता है कि किस तरह की विजय उसे करनी है। इस विवेक को मनुष्य के हृदय में जागृत कर देने ही में उसका महत्व गर्भित है। अतः एक सनातन प्रकृतिमन्य अनुयायियों में से सफल विजयी-वीरों को गिना देना क्या सुगम है ? अस्तु, अब यह तो जैनधर्म के नामकरण से ही स्पष्ट हो गया कि उसका वीरता से कितना घनिष्ट सम्बन्ध है। हमें उसके तात्विक स्वरूप में गहन प्रवेश करके शास्त्र-वाक्यों को उपस्थित करके यह सब कुछ सिद्ध करना अब कुछ आवश्यक नहीं ऊँचता। अब तो हमें केवल यह देखना है कि जैनधर्म किस प्रकार की विजय करने का उपदेश देता है। इसके लिए सब से पहले ज़रा देखिये कि उसमें जैनधर्म के मूल इष्ट-देव 'जिन' भगवान का क्या स्वरूप बतलाया है ? जैन शास्त्र कहते हैं कि "रागादि जेतृत्वाजिनः"-रागादि को जीतने वाला ही जिन है। इसलिये जैनधर्म में सब से बड़ा वीर वह है जो रागादि को जीत लेता है। ऐसे वीर जैनधर्म में अनादिकाल से होते आये हैं। इसलिये जैन वीरों के इतिहास का कोई एक ठीक प्रारम्भ मान लेना सुगम नहीं है। किन्तु, अपने सम्बन्ध को देखते हुए, हम जैनधर्म में माने हुए इस कल्यकाल से ही जैन वीरो के इतिहास पर एक दृष्टि डालेंगे। किन्तु सच्चे वीर की उपरोक्त व्याख्या से शायद आप समझे कि जैनधर्म में केवल इन्द्रिय-विजय ही वीरता कही Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरों के पवित्र चरित्रों से भरे हुवे हैं। हम नहीं चाहते कि उन्हीं चरित्रों को हम यहां दुहराएँ। हाँ, यह हम अवश्य कहेंगे कि वीरों के चरत्र विल्कुल अनूठे हैं-वह दूसरी जगह शायद ही मिले। इनमें से केवल एक-दो का परिचय करा देना तोभी हम आवश्यक समझते हैं। किन्तु इन श्रात्म-विजयी वीरों के अतिरिक्त जैनो में अन्य कर्मवीरों की संख्या भी कुछ कम नहीं है। उन सब का पूर्ण परिचय कराना भी इस छोटी सी पुस्तिका में असम्भव है। तो भी हम संक्षेप में उनकी एक रूप-रेखा पाठकों के सामने उपस्थित कर देंगे। उसको देख कर वह लोग अवश्य ही आश्चर्यचकित हो जायेंगे जो जैनियों को अपने अहिंसा धर्म के कारण स्वप्न में भी तलवार छूने का विचार नहीं कर सकते। अन्यों की बात जाने दीजिये, स्वयं जैनियों में ऐसे अन्ध-भक्तों की आँखें इसको पढ़ कर चकाचौंध हो जायेंगी। जो अहसा के स्वरूप को नहीं जानते और पाप भीरुता को ही अहिंसा समझे बैठे हैं। उन्हें पता ही नहीं कि उनके लिए प्रारम्भी और विरोधी हिंसा तजन्य नही है। अपितु जैन शास्त्र तो उन्हें आदेश करते हैं कि उद्दण्ड शत्रु यदि युद्ध बिना नहीं माने तो उसका युद्ध ही इलाज है अर्थात् उसे रण-क्षेत्र में अच्छी तरह छका कर राह रास्ते ले श्रारो-उसके पाप परिणाम का नाश करदो। पर स्मरण रहे, कि स्वयं पाप अहङ्कार में न जा पड़ना । 'नीति वाक्यामृत के निम्न वाक्य इसी बात के Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घोतक है-- 'दण्डसाध्ये रिसावुपायान्तर मनायाहुति प्रदानमिन । यन्त्रशस्त्रनार प्रतीकारे व्याधौ कि नामान्योपध कुर्यात् ।।" -युद्धसमुद्देश ३६-४० अर्थात्-'जो शत्रु केवल युद्ध करने से ही वश में श्रा सकता है, उसके लिए अन्य उपाय करना अग्नि में आहुति देने के समान है। जो व्याधि यन्त्र, शस्त्र या नार से ही दूर हो सकती है, उसके लिए और पया श्रापधि हो सकती है। इस का तात्पर्य ठीक वही है, जो हम ऊपर कह चुके है; तिस पर धर्म, सब और जाति-भाइयों पर आये हुए सङ्कट के निवारण के लिए अन्य उपायों के साथ 'श्रसिबल'-तलवार के जोर से काम लेने का खुला उपदेश 'पञ्चाध्यायी' के निम्न श्लोकों से स्पष्ट है श्रादन्यतमस्योये रुद्दिष्टपु स दृष्टिमान् । मत्सु धोरोपसँगैषु तत्पर. स्यात्तदत्यये ।०८। यद्वा नधात्म सामर्थ यावन्मत्रासिकोकम । तावहाष्टु च श्रोतु च तब्दाचा सहतं न सः१८०९ । अर्थात-सिद्धपरमेष्टी, अतिविम्ब, जिन मन्दिर, चतुर्विधसत (मुनि, श्रार्यिका, श्रावक, श्राविका ) आदि में किसी एक पर भी आपत्ति श्राने से उसके दूर करने के लिए सम्यग्दृष्टि पुरुष (जैनी) का सदा तत्पर रहना चाहिये। अथवा जय तक अपनी सामर्थ्य है और जब तक मन्त्र, तल Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( = ) वार का ज़ोर और बहुत द्रव्य है तब तक एक जैनी भी, श्राई हुई किसी प्रकार की बाधा को न तो देख ही सकता है और न सुन ही सकता है !' यही बात 'लादी संहिता' नामक ग्रन्थ में और भी स्पष्ट रूप से दुहराई गई है । श्रव भला बतलाइये, जैनियों का क्षत्रित्व से भटका हुआ कैसे कहा जाय ? इसको देख कर भी, यदि कोई जैनों की वीरता पर आश्चर्य करे तो यह उसकी अज्ञानता का अभिनय मात्र होगा । प्रायः होता भी यही है । उस रोज़ 'क्वार्टर्ली जर्नल ऑॉव दी मीधिक सोसायटी' ( भा०१६ पृष्ठ २५) में एक अंग्रेज़ विद्वान् ने जैनवीर वैचप्पा का वीरगल् सम्पादित किया और जव उसमें उन्होंने पढ़ा कि 'युद्धमें वीर गति को प्राप्त करके बैचप्प ने स्वर्गधाम और जिन भगवान के चरणों की निकटता प्राप्त की तो उनका श्रचरज चमक गया । उन्होंने चट लिख मारा 'An extraordinary 1ewaid indeed for a Jaina who 18 said to have sent many of the Konkanigas to desti action " किंतु अब बेचारे का दोष ही क्या ? उन्हें जैन शास्त्र ही नहीं मिले जो उन्हें जैन श्रहिंसा का वास्तविक स्वरूप समझा देते । ख़ैर, सवेरे का भूला हुआ शाम को ठिकाने लग जाय तो वह भूला नहीं कहलाता । लोग अब भी अपनी ग़लती को ठीक करलें तो देश और जाति का कल्याण हो । जैनधर्म पर मढ़ा गया झूठा कलङ्क पल भर में काफूर हो जावे । इसी भाव को लक्ष्य करके, आइये पाठक गए, इस युगकालीन जैन-वीरों 1 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ह ) के प्रभावक चरित्र - रेखाओं से अपने जीवन-पथ को चिह्नित कर लीजिये और फिर निशद्ध हो कर जैन जीवन - वीर जीवन का प्रकाश दुनियां में फैल जाने दीजिये । इसका परिणाम यह होगा कि हम और आप कवि के राग में लय मिला कर आकाश गुँजाते मिलेंगे कि "यह थे वह वीर जिनका नाम सुन कर जोश आता है । रंगों में जिनके अफसाने से चक्कर खून खाता है ॥' x x x 'इसी कौम में ही चौवीस तीर्थकर हुये पैदा. जहा में आज तक वजता है जिनके नाम का डका । समझते थे अपना धर्म हर एक जीव की रक्षा, निछावर ये दया पर, बल्कि वह सौ जान से शैदा ॥ xx x x " अव तक धाक इन बॉके दिलेरों के शुजात की, लगी है सुफए तारीस पर मोहर शहादत की ।' . x X ( २ ) वीराग्रणी श्री ऋषभदेव । • 'नामे सुताः स वृपभो मरुदेवीसूनुर्या वे चचार मुनियोग्यचर्याम् ।' - भागवतपुराणे । सभ्यता का अरुणोदय था । उस समय लोगों को रहनसहन और करने धरने का इतना भी ज्ञान नही था, जितना Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) कि आज कल के बच्चों को खेलते-खेलते होता है । वह बड़े हैरान थे। तव तक उन्हें पुण्य-प्रताप से जीवन यापन करने के लिए आवश्यक सामग्री स्वतः मिल जाती थी; किन्तु अब वह पुण्य-क्षेत्र न था। वह परेशान थे। कैसे खेत वावें, अनाज काटे, रोटी बनावें और पेट की ज्वाला शमन करें ? यह उन्हें ज्ञात नहीं था। शैतान जगली जानवरों से अपने को कैसे बचावें ? मेंह-बूंद और गर्मी-सर्दी से अपने तन की रक्षा क्यों कर करें? यह कुछ भी वह न जानते थे। इस सङ्कट की हालत में वह मनु नाभिराय के पास भगे गये और अपनी दुःख गाथा उनसे कहने लगे। उन्होंने सोचा और कहा'भाई, अव ऐसे काम न चलेगा। अपना पुण्य क्षीण हो,चला है। चलो, अपने में जो विद्वान् दोखे, उसे इस सङ्कट में से निकाल ले चलने के लिए सर्वाधिकारी चुन लें।' लोगों ने उत्तर दिया-'महाराज, इस विषय में हम कुछ नह जानते । जिसे श्राप योग्य समझे, उसे सर्वाधिकारी चुन लीजिये । हमें कोई आपत्ति नहीं।' नाभिराय बोले-'यह ठीक है, पर सोचसमझने की बात है। यद्यपि मुझे इस समय कुमार ऋषभ अथवा वृषभ सर्वथा योग्य जॅचते है, पर श्राप लोग भी सोच देखें। लोगों ने कहा यही ठीक है। और इसी अनुरूप ऋषभदेव जी नेता चुन लिये गये। वह जन्म से ही असाधारण गुणों के धारक थे। जैनशास्त्र तो उनकी प्रशंसा करते ही है; परन्तु हिन्दू शास्त्र भी उनसे इस बात में पीछे नही हैं । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भागवत पुराण में उनका चन्धि बड़े अच्छे ढग पर लिखा है और वह जैनवर्णन से सादृश्य रसता है। वहाँ भी उन नाभिराय और मरुदेवी का पुत्र लिखा है और कहा है कि यह आठवें अवतार थे। 'भागवतकार' यह भी कहते हैं कि 'सर्वत्र समता, उपशम, वैराग्य, ऐश्वर्य और महेश्वर्य के साथ उनका प्रभाव दिन-दिन बढ़ने लगा। वह स्वय तेज, प्रभाव, शक्ति, उत्साह, कान्ति और यश प्रभृति गुण से सर्व प्रधान यन गये। (पाट) ऋषभदेव जी जय सर्व प्रधान बन गये तो उन्होंने लोगों को रहन-सहन और करने-धरने के नियम बतलाने और वह सानन्द जीवन यापन करने लगे। जगली जानवरों और श्रातताइयों के विरोध में अपनी रक्षा करने के लिए उन्होंने लोगों को हथियार यनाना सिखाया और स्वयं हाथ में तलवार लेकर उन्होंने लोगों को उसके हाथ निकालना सिखाये । यही पयों ? कपड़ा युनना, वर्नन बनाना इत्यादि शिल्पकर्म और लिखनापदना, चित्र निकालना आदि विद्याओं का शान भी उन्होंने पहले पहल लोगों को फगया। राष्ट्रीय व्यवस्था और शिल्पकला तथा व्यापार की उन्नति के लिए उन्होंने वर्गभेद नियत किये । जिन्हें उन्होंने देश की रक्षा के लिए यलवान पाया उन्हें सैनिक वर्ग में नियत करके 'क्षत्री' नाम से प्रसिद्ध किया और जो मसि, सपि एवं पाणिज्य कार्यों में निपुण थे, वह 'आर्थिक वर्ग' में रखवे गये और वैश्य' नाम से उल्लिखित किये गये। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथापि देश में सेवा कार्य और शिल्प की उन्नति के लिए जिन्हें दक्ष पाया उन्हें 'सेवक वर्ग में नियुक्त किया और उनको 'शूद्र' नाम से पुकारा । इस तरह प्रारम्भ में इस त्रिवर्ग से ही राष्ट्रीय कार्य चल निकला । राजाज्ञा के बिना कोई वर्गभेद का उल्लकन नहीं कर सकता था। हाँ, यदि कोई वैश्य क्षत्रियत्व के उपयुक्त पाया जाता, तो उसे सैनिकवर्ग में पहुँचने की पूर्ण स्वाधीनता थी। बस इस प्रकार देश में राष्ट्रीय नागरिकता को जन्म दे कर ऋषभदेव जी सुचारु रूप से शासन करने लगे। किन्तु इस समय तक लोगों को अपने इहलोक सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति से ही छुट्टी नहीं मिली थी; इसलिये उन्हें परलोक विषयक वातों की ओर ध्यान देने का अवसर ही नहीं मिला था और इसका कारण 'ब्राह्मण वर्ग' अभी अस्तित्व • में नहीं आया था। उसका जन्म तो भरत महाराज ने तव किया जव भगवान ऋषभदेव सर्वश तीर्थङ्कर हो गये। __उपरान्त जब ऋषभदेव जी ने राष्ट्र की समुचित राजव्यवस्था कर दी और लोगों को सभ्य एवं कर्मण्य जीवन विताना लिखा दिया; तथापि स्वयं वे गृहस्थ रूप में सफल हो चुके, तब उन्हें परलोक की सुधि पाई । विवेक उनके सम्मुख मूर्तिमान हो, श्रा खड़ा हुआ। इस बड़ी उम्र में अब उन्हें आत्म-ज्ञान प्राप्त करने की सुधि आई। उन्होंने मन्त्रिमण्डल को एकत्र किया। सव की सम्मति से ऋषभदेव जी के पुत्र भरत जी का राजतिलक कर दिया गया। आर्यावर्त के वही Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) पहले सम्राट् हुए ओर इस देश का नाम 'भारतवर्ष उन्हीं की अपेक्षा पडा। भरत के राजा हो जाने पर ऋषभदेव जी ने प्राकृत भेष को धारण कर लिया और वह प्रकृति की गोद में जाकर रहने लगे। "दूसरे शब्दों में कहें तो वे परम हंस अथवा दिगम्बर साधु हो कर गहन तप और अचिन्त्य ध्यान में लीन हो गये।" इधर भरत महाराज ने अपनी तलवार को सँभाला । उन्होंने उन देशों पर लोगों को अपने वश में ला कर सभ्य और कर्मण्य बना देना उचित समझा, जो अभी श्रज्ञानान्धकार में पड़े हुए थे। भारत के प्रान्तीय शासक श्रा कर उनके भरडे के तले इकट्ठे हो गये । यड़ी भारी सेना को लेकर उन्होंने पृथ्वी के कोने-कोने को अपने अधिकार से चिह्नित कर दिया। किन्तु इस दिग्विजय को निकलने के पहले ही उन्हें शात हुआ था कि भगवान ऋषभदेव सर्वश परमात्मा हो यये है। वस, यह चट उनकी चन्दना कर आये थे और उनसे उन्होंने थाधक के व्रतों को ग्रहण कर लिया था। इस प्रकार एक वती जैन की तरह उन्होंने तलवार ले कर यह दिग्विजय की थी। भागवत में भी ऋषभदेव जी को स्वयं भगवान् और कैवल्यपति ठहराया है। उन्होंने इस सर्वश रूप में सर्व प्रथम आर्यधर्म का उपदेश दिया। इस युग में जैनधर्म का प्रथम प्रतिपादन यही हुआ था। भगवान ने इस धर्म का प्रचार सर्वत्र विचार कर किया और जनसाधारण को आत्म-स्वातन्त्र्य Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) सत्रहवे ओर अठारहवें तीर्थङ्कर सार्वभोम चक्रवर्ती सम्राट थे । सालहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ का जन्म हस्तिनापुर में हुआ था । तब घहाँ पर काश्यपवंशी राजा विश्वसेन राज्याधिकारी थे। इनके पेरादेवी नाम को रानी थी। उसी के गर्भ से शान्तनाथ भगवान का जन्म हुआ था। युवा होने पर पिता ने इनका राजतिलक कर दिया और तव राजा हो कर इन्होंने पदण्ड पृथ्वी पर अपनी विजय पताका फहराई थी । उपरान्त राज-पाट छोड़ कर श्रात्म स्वातन्न्य पाने के लिए उन्होंने विषय-कपाय रूपी वैरियों को परास्त कर के मोक्ष- लक्ष्मी को घरा श । इन्ही की तरह सत्रहवें तीर्थकर कुंथुनाथ ने भी प्रबल अक्षौहिणी लेकर सार्वभौम दिग्विजय कर के चक्रवर्ती पद पाया था । यह भी हस्तिनापुर में कुरुवशी राजा सूरसेन की पत्नी रानी कान्ता की कोख से जन्मे थे । अठारहवें तीर्थङ्कर अरहनाथ थे । इनका जन्म भी हस्तिनापुर में हुआ था। तय वहाँ पर सोमवंश के काश्यपगोत्री राजा सुदर्शन राज्य कर रहे थे। उनकी रानी मित्रसेना अरहनाथ जी की माता थी । इन्होंने भी समस्त पृथ्वी पर अधिकार जमा कर चक्रवर्ती पद पाया था। इनके समय से ही ब्राह्मण वानप्रस्थ साधुगण विवाह करने लगे थे । इस प्रथा का प्रवर्तक जमदग्नि नामक संन्यासी था । और जब अरहनाथ जी मुक्त हो गये, तब परशुराम ने क्षत्रियों को निःशेष करने Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) का बीड़ा उठाया था। इससे सहज अनुमान हो सकता है, कि इन क्षत्रिय सम्राट की धाक और प्रभाव जनसाधारण पर कैसा जमा हुआ था। अव ज़रा सोचिये कि जव जैनधर्म के प्रतिपादक स्वयं तीर्थकर भगवान ही तलवार लेकर रण-क्षेत्र में वीरता दिखा चुके हैं, तब यह कैसे कहा जाय कि जैनधर्म में कर्मवीरता को कोई स्थान ही प्राप्त नही है? . (४) तीर्थङ्कर अरिष्टनमि। भारत की पुरातन इतिवृत्ति में महाभारत संग्राम को वही स्थान प्राप्त है, जो इस ज़माने के इतिहास में पिछले योरुपीय महायुद्ध को मिला हुआ है। अच्छा, तो उस महायुद्ध में भी अनेक जैन महापुरुषों ने भाग लिया था। औरों की बात जाने दीजिये । केवल श्रीकृष्ण जी के सम्पर्क भ्राता और जैनों के पाईसवें तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि को ले लीजिये। जिस समय यादवों को जरासिन्धु से घोर संग्राम करना पड़ा तो उस समय भगवान अरिएनेमि ने बड़ी वीरता दिखाई। स्वयं इन्द्र ने अपना रथ और सारथि उनके लिए भेजा। उसी पर चढ़ कर भगवान अरिष्टनेमि ने घोर युद्ध किया और फिर ढलती उम्र के निकट पहुँचते-पहुँचते वह कर्म-रिपुओं से लड़ने के Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) लिए घर-चार और कपडे-लत्ते छोड कर अरण्यवासी हो गये। फलतः श्रात्म-स्थानन्य उन्हें मिला। वह सर्वज्ञ हो गये और गिरनार पर्वत से उन्होंने मुक्तिलाम किया। कहिये उनकी वीरता कैसी अनुपम यी ? वह केवल भौतिक, बल्कि आत्मिकक्षेत्र में भी लासानी है । जैन वीरों की यही श्रेष्ठता है । वह न केवल रण-क्षेत्र में ही शौर्य प्रकट करके शान्त हुए, प्रत्युत् अध्यात्मिक क्षेत्र में महान् शूर-वीर बने। इसीलिए वह जगत्-वन्ध है। (५) भगवान महावीर और उनके समय के जैन वीर। ( राष्ट्रपति टक और सम्राट श्रोणिक प्रभृति जैन धीर) वैशाली, क्षत्रियग्राम, कुण्डग्राम, कोजग आदि छोटे-बडे नगर और सन्निवेश वहाँ श्रास पास बसे हुए थे। इनमें सूर्यवंशी क्षत्रियों की बसती थी। लिच्छवि नामक सूर्यवंशी क्षत्रियों की इनमें प्रधानता थी और यह वैशाली में आवाद थे । कुण्डग्राम और कोलग अथवा कुलपुर में नाथ अथवा शातृवंशी क्षत्रियों की धनी श्रावादी थी। इनके अतिरिक्त इदगिर्द और भी बहुत से क्षत्रीकुल बिखरे हुए थे। इन सबने श्रापस में सगठन कर के एक प्रजातन्त्रात्मक शासनतन्त्र की Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) स्थापना कर ली थी। इसका नाम उन्होंने रक्खा था-"श्रीबजियन या वृजिगण राज्य।" और वे इसमें अपने प्रतिनिधि चुन कर भेजते थे। वे सव 'राजा' कहलाते थे। इस राष्ट्रसद्ध के सभापति (President) राजा चेटक थे और वे लिच्छिवि वंशीय क्षत्रियों के नायक थे। ___ भगवान महावीर की माता त्रिशलादेवी राजा चेटक की विदुषी कन्या थीं। अतः भगवान महावीर और राष्ट्रपति चेटक का घनिष्ठ सम्बन्ध था। गणराज्य के स्वाधीन वातावरण में शिक्षित-दीक्षित हुए यह नरपुंगव श्रेष्ठ वीर थे। राजा चेटक अपने शौर्य के लिए प्रख्यात् थे। एक बार उस समय के प्रख्यात साम्राज्य मगध से लिच्छिवियों की युद्ध ठन गई। फलतः वजियन राष्ट्रसङ्ग में सम्मिलित सब ही क्षत्री अस्त्र-शस्त्र से सुसजित होकर रणक्षेत्र में श्रा डटे। सेनपति बनाये गये श्रावकोत्तम वीर सिंहभद्र अथवासीह यह संभवतः राजा चेटक के पुत्र थे और बाँके वीर थे। उपरोक्त सह मे भगवान महावीर के वंशज शात क्षत्री भी सम्मिलित थे। उन्होंने भी इस युद्ध में खास भाग लिया। राजकुमारमहावीर भी इस कार्य में पीछे न रहे होंगे; यद्यपि उनका अलग उल्लेख किसी ग्रन्थ में नहीं है। तो भी यह स्पष्ट है कि लिच्छिवि, शात, कश्यप श्रादि क्षत्रिय कुलों के वीर इस युद्ध में शामिल थे। बड़ा घमासान युद्ध हुआ और विजयश्री राजा चेटक के पक्ष में रही। किन्तु मगध सम्राट् जल्दी मानने वाले Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न थे। वह फिर रणक्षेत्र में प्रा डटे, किन्तु अब के दानों राज्या में सन्धि हो गई । भला, देश के लिए मतवाले राष्ट्रसङ्घ वाले क्षत्रिय-वीरी के समक्ष मगध साम्राज्य के भाडेतू सैनिक टिक हा फैसे सकते थे? इस सन्धि के साथ ही लगध सम्राट श्रेणिक विम्बसार के साथ राजा चेटक की पुत्री चेलनी का विवाह हो गया। चेलनी पक्की धाविका थी और श्रेणिक वौद्ध-धर्मावलम्बी था। इसलिये प्रारम्भ में तो चेलनी को बड़ा आत्म-सन्ताप हुआ था, किन्तु उपरान्त उसने साहस करके अपने पति को जैनधर्म का महत्व हृदयहम कराना प्रारम्भ किया और सौभाग्य से वह उसमें सफल भी हुई। इस प्रकार न केवल राजा "चेटक", सेनापति "सिंहभद्र" और अन्य राष्ट्रीय सैनिक ही जैनधर्मभुक्त थे, अपितु सम्राट् "श्रेणिक", युवराज "अभयकुमार" और अन्य सैनिक भी जैनधर्म के भक्त थे। इन सब चीरों के चरित्र यदि विशदरूप में लिखे जाये, तो एक पोथा बन जाय, परन्तु तो भी संक्षेप में इन जैन वीरों के खास जीवन-महत्व को स्पट कर देना उचित है। राजा "चेटक" के व्यक्तित्व का महत्व उनके राष्ट्रपति होने में है। योरुप के चीसवीं शताब्दि वाले राजनीतिशो को प्रजातन्त्र शासन पर घना अभिमान है, परन्तु वह भूलते है, भारत में इस शासन-प्रथा का जन्म युगो पहिले हा चुका था। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) भगवान महावीर के समय में न केवल वज्जियन राष्ट्रसङ्घ था, बल्कि मल्ल, शाक्य, कोलिय, मोरीय इत्यादि कई एक गणराज्य थे । किन्तु इन सब में लिच्छिवि क्षत्रियों की प्रधानता का वृजिराष्ट्रसङ्घ मुख्य था । इसी के सभापति राजा चेटक थे । इसकी सुव्यवस्था का श्रेय राजा चेटक को था और इसमें ही उनका महत्व गर्भित है । X X सम्राट् “श्रेणिक" के व्यक्तित्व की महत्ता मगध साम्राज्य की नीव को दृढ़ बना देने में है । उन्होने साम्राज्य की राजधानी राजगृह को फिर से निर्माण कराया था । परिणाम इस सव का यह हुआ कि कुछ वर्षों के भीतर ही मगधराज्य भारत का मुकुट वन गया । सिकन्दर महान् ने जब सन् ३०२ई० पूर्व में भारत पर श्राकमण किया तब उसे विदित हुआ कि मगधराज ही महा प्रबल भारतीय राजा है । यह श्रेणिक की दूरदर्शिता का ही परिणाम था । किन्तु श्रेणिक का महत्व तो उनके उस वीरतामय कार्य में गर्भित है, जिसके वल हिन्दुस्तान विदेशियों के जुए तले आने से बाल-बाल बच गया। बात यह थी कि उनके राज्यकाल में ही ईरान के वादशाह ने भारत पर आक्रमण किया था किन्तु श्रेणिक ने उसे मार भगाया और उसके देश में भारतीयता की धाक जमा दी । श्रेणिक के पुत्र अभयकुमार के प्रयत्न से पारस्य मे जैनधर्म का प्रचार हो गया । यहाँ तक कि एक ईरानी राजकुमार तक F Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) जैनी होकर मुनि हो गया था ! भला, बताइये देश और श्रायेसंस्कृति के लिए किया गया, यह कितना महती कार्य था । X X किन्तु यहां तक के वर्णन से "भगवान महावीर" का कुछ भी परिचय प्रकट नही हुआ । श्रतः श्राइये उन युगवीर की पवित्र जीवनी पर एक नजर डाल लें। कुण्डग्राम के शातृ श्रथवा नाथ क्षत्रियों की ओर से वृजिराष्ट्रसद में भगवान महावीर के पिता राजा सिद्धार्थ सम्मिलित थे । कहना होगा कि भगवान महावीर एक वीर राजकुमार थे। वृजिराष्ट्र के लिए न जाने उन्होंने क्या-क्या कार्य किय । वे कार्य तो उनकी विश्वविजयी प्रेम-सरिता में वह कर कहीं न कहीं के हो रहे । श्राज तो उनका नाम और काम श्रहिंसाधर्म के पूर्व प्रचा एक के रूप में पुज रहा है । श्राज महात्मा गान्धी जिस सत्याग्रह श्रत्र से नृशस राज्य को पलटने की धुन में व्यग्र हो कर स्वाधीनता की लडाई लड रहे है, वह अस्त्र जैनवीरों द्वारा बहुत पहले श्रज़माया जा चुका है। मनसा वाचा कर्मणा पूर्ण अहिंसक रहते हुए भी वह वीर दुर्दान्त शत्रु को परास्त करने में सफल हुए थे । यह मात्र उनके त्याग, तपस्या और सहनशीलता का प्रभाव था । भगवान महावीर को भी एक ऐसी लडाई का व्यर्थ ही सामना करना पड़ा था । राज-काज को छोड कर वह नन मुनि हो कर विचार रहे थे। उज्जैन के पास एक भयानक Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मशान था। वह वहीं जाकर श्रासन लगा बैठे। किसीसे मतलब नहीं-वह अपने आत्म-स्वातन्त्र्य पाने के उपायों में ध्यानमग्न थे। किन्तु कितने भी शान्त और निस्पृह रहिये, परन्तु दुष्टों के लिए साधु पुरुषों का रूप ही भयावह है-वह उनके स्वरूप को सहन नहीं कर सकते । इस प्रकार की दुष्टता को लिये हुए तव एक रुद्र नामक जीव उस स्मशान में श्रा निकला। भगवान को देखते ही वह आग बबूला हो गया। उसने मनमाने ढङ्ग से भगवान पर प्रहार करने शुरू कर दिये। किन्तु सचे सत्याग्रही महावीर अपने ध्यान में अटल रहे। उन्होंने उस रुद्र की ओर तनिक भी ध्यान न दिया। दुष्टता की भी हद होती है। सत्य के समक्ष असत्य टिकता नहीं। यही हाल रुद्र का हुआ । अन्त में वह अपनी करनी से हताश हो गया। फिर उसे होश आया, उन महापुरुष की दृढ़ता और सहनशीलता का । वह स्वयमेव उनके सामने नतमस्तक हो गया। सत्याग्रह का यह सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। इसलिये आधुनिक सत्याग्रही के लिए भगवान महावीर एक अनुकरणीय श्रादर्श हैं । अब कहिये, यह आदर्श जैनों के मस्तक को ऊँचा करने वाला है या नहीं? __ भगवान महावीर जैनियों के अन्तिम तीर्थकर थे। इन्होंने देश-विदेशों में घूम कर सत्य-धर्म का प्रचार किया था और आज से करीब ढाई हज़ार वर्ष पहले उन्होंने पावापुर (विहार प्रान्त) से मुक्ति-रमा को वरा था। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) उस समय भगवान महावीर के अनुयायी बहुत से राजामहाराजा हो गये थे । उन सब का सामान्य परिचय कराना भी यहाँ कठिन है। हॉ, उनमें से किन्ही खास वीर्य का परिचय उपस्थित कर देना उचित है । 1 भगवान के इन वीर शिष्यों में सिन्धु-सौवीर के राजा "उदायन" विशेष प्रसिद्ध है । अपने जैनधर्म-प्रेम के कारण यह जैनों के दिलों में घर किये हुए हैं। श्रावाल-वृद्ध-वनिता उनके नाम और काम से परिचित है । वह जितने ही धर्मात्मा थे, उतने ही वीर थे। एक बार उज्जैन के राजा " चन्द्रप्रद्योत " ने इन पर आक्रमण कर दिया। घमासान युद्ध हुआ । फलतः " चन्द्रप्रद्योत " को खेत छोड कर भाग जाना पडा । किन्तु "उदायन" ने उसे यूँ ही नहीं जाने दिया । उसे गिरफ़ार कर लिया, उज्जैन में राज करने लगा। उसने भी कई लडाइयॉ लड़ीं और उस समय के प्रख्यात् राजाओं में वह गिना जाने लगा । किन्तु उदायन का महत्व उससे विजय पा लेने में नहीं, बल्कि तत्कालीन भारतीय व्यापार को उन्नत बनाने में गर्भित हैं। आज सामुद्रिक व्यापार के बल यूरोप वासी मालामाल हो रहे हैं । तब उदायन ने भी भारत को सामुद्रिक व्यापार में अग्रसर धनाने का उद्योग किया था। उनके राज्य में उस समय के प्रसिद्ध बन्दरगाह "सूर्पारक" श्रादि थे। उदायन उनकी उन्नति र समुचित व्यवस्था रख कर भारत का विशेष हितसाधन कर सके थे। जैनवीरों में उनका नाम इन कार्यों से ही Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) अमर है । अन्त में वह जैनमुनि हो कर मुक्त हो गये थे। दूर-दूर दक्षिण भारत में भगवान महावीर के शिष्य तब मौजूद थे। जहाँ मलयपर्वत है, वहाँ पर तव हेमांगद देश था। वहाँ के राजा सत्यन्धर थे। उन्हीं के पुत्र राजकुमार जीवन्धर' थे। जैनशास्त्र इन्हें 'क्षत्रचूड़ामणि' कहते हैं। अब सोचिये, यह कितने वीर न होंगे। इन्होंने भारत में घूम कर अपने बाहुबल से अनेक राजाओं को परास्त किया था और अन्त में यह भगवान महावीर के निकट जैनमुनि हो गये थे। मगध में श्रेणिक के बाद उनका पुत्र "अजातशत्रु" हुआ था। प्राचीन भारतीय इतिहास में यह एक प्रसिद्ध और पराकमी सम्राट के रूप में उल्लिखित है। इसने मगध साम्राज्य को दूर-दूर तक फैलाया था और उस समय के प्रमुख गणराज्य 'वृजिसद्ध' से लड़ाई लड कर उसे अपने आधीन कर लिया था। इसकी वीरता के सामने बड़े-बड़े योद्धा की काटते थे। भगवान महावीर ने इसी के राजकाल में निर्वाण पद प्राप्त किया था। मल्ल, मोरिय आदि गणराज्यों में भी भगवान महावीर के। अनुयायी अनेक वीर पुरुष थे। किन्तु उपरोल्लिखित चरित्र ही उस समय के जैनवीरों के महत्व को दर्शाने के लिए पर्याप्त Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) हैं। ये सब वीर-रत भगवान महावीर के अपूर्व प्रकाश को प्रदीप्त कर रहे थे। अपनी शूर-वीरता, त्याग-धर्म और देशप्रेम के कारण इतिहास में उनका नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा हुआ श्रमर है। हाँ, अभागे जैनी उनके नाम और काम को भूल कर कायर, दांगी ओर स्वार्थी बने रहें, तो यह कम आश्चर्य नहीं है। नन्द साम्राज्य के जैन वीर अजात शत्रु के बाद शिशुनागवंश में ऐसे पराक्रमी राजा न रहे जो मगध साम्राज्य को अपने अधिकार में सुरक्षित रयते । परिणाम इसका यह हुआ कि नन्द घंश के राजा मगध के सिंहासन पर अधिकार कर बैठे। इस वंश के अधिकांश राजा जैनधर्मानुयायी थे ऐसा विद्वान अनुमान करते है। किन्तु सम्राट नन्दिवर्द्धन के विषय में यह निश्चित है कि वह एक जैन राजा थे। महानन्द यद्यपि अपनी धार्मिक कट्टरता के लिये प्रसिद्ध था, परन्तु एकदा कन्या से विवाह करने पर यह ब्राह्मणों की दृष्टि से गिर गया था। फलतः वह और उस के पुत्र महापद्म का जैन होना सम्भव है । अस्तु, ___ . ...... ... .. अली हिस्टी आफ इण्डिया, पृ. ४५-४६ जल माफीयर एण्ड भोधीमा रिमर्च मोमाइटी भा १३ पृ. २४५ X X Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) "नन्दिवर्द्धन" वस्तुतः एक पराक्रमी राजा था। वह अपनी माता की अपेक्षा लिच्छिवि वंश से सम्बन्धित था। मगध साम्राज्य पर उसने ४० वर्ष राज्य किया और इस (४४६-४08 ई० पू०) अवधि में उसने अवन्ति राज को परास्त किया, दक्षिण-पूर्व व पश्चिमीय समुद्रतटवर्ती देश जीते, उत्तर में हिमालय-वर्ती प्रदेशो पर विजय प्राप्त की और काश्मीर को भी अपने अधिकार में कर लिया । कलिङ्ग पर भी उसने धावा किया और उसमें भी सफल हुआ। इस विजय के उपलक्ष में वह कलिङ्ग से श्री पभदेव की मूर्ति पाटलिपुत्र ले श्राया था। किन्तु नन्दिवर्द्धन का महत्व श्रेणिक की तरह पारस्यराज्य का अन्त भारत से कर देने में गर्मित है। इस अन्तर में पारस्यनृप ने तक्षशिला के पास अपना पॉव जमा लिया था। परन्तु नन्दिवर्द्धन ने उसका अन्त करके भारत को पुनः स्वाधीन बना दिया और इस सुकार्य के लिए उनका नाम भारतीय इतिहास में अमर रहेगा। नन्दिवर्धन के अनुरूप ही "महानन्द" और "महापद्म" भी पराक्रमी राजा थे। इन्होंने कौशाम्बी,श्रावस्ती, पाश्चाल, कुरु आदि देशों को जीत लिया था। इनके वाद नव (नूतन) नन्दों में अन्तिम "नन्दराज" भी जैन थे। इनके महा अमरत्य राक्षस थे, जो जीवसिद्धि, नामक Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ )। जैन-मुनि (क्षपणक) का श्रादर करते थे। सम्राट् चन्द्रगुप्त के विरुद्ध यह दोनों वीर घडी बहादुरी से लड़े थे। किन्तु इसमें वह विजयी न हुये, बल्कि नन्दराज तो मारे गये और राक्षस को चन्द्रगुप्त ने अपने पक्ष में कर लिया। (७) मौर्य साम्राज्य के जैन शूर। नन्दों के बाद मौर्य राजागण मगध साम्राज्य के अधिकारी हुए। यह सूर्यवंशी क्षत्री थे और इसके पहले इनका गणराज्य "मोरिय-तन्त्र" के रूप में हिमालय की तराई में मौजूद था। उस समय मोराख्य अथवा मोरिय देश में भगबान महावीर का विहार और धर्मापदेश कई बार हुआ था। उसी का परिणाम था कि उनमें से अनेक वीर पुरुप भगवान महावीर की शरण श्राये थे। भगवान महावीर के दो खास शिष्यवाणधर मौर्य ही थे। इस मौर्यवंश के राजकुमार "चन्द्रगुप्त" ही मगध साम्राज्य के अधिपति हुए थे और यह सम्राट अपने नाम और काम के लिए न केवल भारतीय इतिहास में अपितु संसार के प्राचीन इतिहास में अद्वितीय हैं । चन्द्रगुप्त ने अपने वाहुवल से पेशावर से कलकत्ता और सुदूर दक्षिण की सीमा तक अपना राज्य फैला लिया था। इन राज्य को अन्य विशेष बातों Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) मैं यह बात प्रमुख है कि इन्होंने यूनानी वीर, सिकन्दर महान् के पीछे रहे प्रान्तीय यूनानी शासक को हिन्दुस्तान के सीमा, प्रान्त से मार भगाया था और भारतीय स्वाधीनता को अनुरण रक्खा था। इतना ही क्यों? किन्तु जब फिर सिल्यूकस नामक यूनानी बादशाह ने भारत पर आक्रमण किया, तो चन्द्रगुप्त ने उसे बुरी तरह हराया और सन्धि करने को बाध्य कर दिया। इस सन्धि के अनुसार चन्द्रगुप्त का राज्य अफ़गानिस्तान तक बढ़ गया और यूनानी राजकुमारी से उनका विवाह भी हो गया। इस प्रकार भारत और यूनान में गहन सम्बन्ध भी पहले पहल इनके राज्य में स्थापित हुआ और उनका यह सब गौरव जैनधर्म का गौरव है, क्योंकि वह जैनधर्म के भक्त थे।प्रख्यात्श्रुतकेवलीभगवान्भद्रवाहु के शिष्य थे। आज चन्द्रगुप्त के जैनत्व को बड़े-बड़े ऐतिहास मानते हैं और विक्रमीय दूसरी-तीसरी शताब्दि के जैनग्रन्थ और सातवीं आठवीं शतान्दि के शिलालेख इस बात का समर्थन करते हैं। किन्तु इतने पर भी हाल में इसके विरुद्ध आवाज़ फिर उठी यह आवाज़ श्री सत्यकेतु विद्यालङ्कार ने उठाई है और वह चन्द्रगुप्त मौर्य को जैन चन्द्रगुप्त न मान कर उनके प्रपत्र सम्प्रति को जैन चन्द्रगुप्त मानते है । इसके लिए वह जैनग्रन्थो को पेश करते हैं। किन्तु जिन अर्वाचीन ग्रन्थों के आधार से वह इस निर्णय पर पहुँचे है, वह उनसे प्राचीन ग्रन्थों से "देखो 'मौर्य साम्राज्य का इतिहास' पृ. ४१५-४२५ - Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) याधित है। मोटी बात तो यह है कि यदि सम्प्रति के समय में भद्रवाहु जी को हुश्रा मान लिया जाय तो सारी जैनकालगणना ही नष्ट-भ्रष्ट हुई जाती है और यह हो नहीं सकता, क्यों कि 'त्रिलोकप्रज्ञप्ति' जैसे प्राचीन ग्रन्थ से इस काल गणना का समर्थन होता है और उधर हाथी गुफा का खारवेल वाला शिलालेख भी इसी बात का द्योतक है, क्योंकि उसमें उल्लिखित हुई सभा में अंगशान के लोप होने का जिकर है। यदि ऐसा न माना जाय और सम्प्रति के समय में ही भद्रवाहु को हुश्रा माना जाय ता श्रङ्गशान-धारियों का समय जैनाचार्य कुन्दकुन्द उमास्वाति आदि के बाद तक प्रा ठहरेगा, जो नितांत श्रसम्भव है। इस दशा में शायद यह प्रश्न किया जाय कि यदि सम्प्रति जैन चन्द्रगुप्त नहीं है, फिर पुण्याश्रव और राजावलीक थे में दो चन्द्रगुप्तों का उल्लेख क्यों है और क्यों दूसरे चन्द्रगुप्त को जैन लिया है ? उसका सीधा सा उत्तर यही है कि जिस प्रकार सिंहलीय चौद्ध लेखकों ने दो अशोको का उल्लेख करके इतिहास में गड़बडी खडी की है, उसी तरह पीछे के इन जैन लेखकों ने अपने चन्द्रगुप्त और अशोक को बोद्धों के अशोक से भित्र प्रकट करने के लिए, उनका उल्लेख अलग और भिन्न रूप में किया है। राजावलीक थे का आधार सिंहलीय इतिहास ही प्रतीत होता है। अतः चन्द्रगुप्त मौर्य को जैन न मानना श्री सत्यफेतु जी की इस मान्यता का खण्डन विशेष रूप से हम Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) ठीक नहीं है। वह निस्सन्देह जैन थे। मेगस्थनीज़ भी उन्हें श्रमणोपासक (जैनमुनियों का भक्त ) प्रकट करता है। । चन्द्रगुप्त की तरह ही उनके पुत्र "विन्दुसार" और पौत्र अशोक जैनधर्म से प्रेम रखते थे। इन सम्राटों ने किस पराक्रम और वीरता का परिचय दिया था, यह बात इतिहास-प्रेमियों से छिपी नह है। इन्होंने श्रवणवेलगोल (माईसूर ) में जाकर चन्द्रगुप्त की स्मृति में मन्दिर आदि निर्माण कराये थे, जो आज तक वहाँ विद्यमान हैं।। इसके बाद मौर्यसम्राट "सम्प्रति" भी एक बॉके वीर और धर्मात्मा नर-रत्न प्रकट होते हैं। उन्होंने दक्षिण भारत-को विजय करके वहाँ आर्य संस्कृति और जैनधर्म का पुनरुद्धार किया था। नीच-ऊँच सव को जैनधर्म में दीक्षित करके अरबईरान आदि विदेशों में जैनधर्म का प्रचार किया था। इस तरह यह स्पष्ट है कि मौर्यकाल के अन्त समय तक जैनधर्म की प्रधानता मगधराजवंश में रही थी और मगध नरेश ही भारत के भाग्य-विधाता रहे थे। उनकी छत्रछाया में भारत का भाग्य अवश्य ही चमकता रहा। अब कहिये, क्या यह जैन-वीरता का प्रभाव नहीं था? प्रकट करने वाले हैं। इसी कारण हमने इस पुस्तिका में इसका उल्लेख 'मोटे तरीके से किया है। जनरल आव दी रायल ऐशियाटिक सोसाइटी, भा०९ पृ० १७६ । मजैन शिलालेख संग्रह, भू० पृ०६५ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) (८) सम्राट् ऐल खारवेल। इतिहास से बहुत पहले की बात है। तव तक ब्राह्मणवर्ग 'ने पार्षवेदो को कलङ्कित नहीं किया था। वेदों के अनुसार यशों के मिस से हिंसा नहीं की जाती थी। तय कौशल में हरिवंश का राजा दक्ष राज्य करता था। इला उसकी रानी थी। ऐलेय पुत्र और मनोहरी कन्या थी । दक्ष मनोहरी के रूप पर पागल हो गया। उसने उसे अपनी पत्नी बना लिया। गनी इला इस पर कुढ़ गई। उसने ऐलेय को पहका लिया और वे माता-पुत्र विदेश को चल दिये। घे दुर्गदेश में पहुंचे और वहाँ इलावर्द्धन नामक नगर घसा कर बस गये। इसके वाद ऐलेय अगदेश में ताम्रलिप्त नामक नगरी की नींव जमाने में सफल हुए । फिर वह एक सच्चे जैनवीर के समान दिग्विजय को निकले । इस दिग्विजय में उन्होंने नर्मदा तट पर माहिष्मती नगरी की स्थापना की। उपरान्त अपने पुत्र कुणिम को राज्य दे कर मुनि हो गये। श्रव भला बताइये ऐसे साहसी और पराक्रमी पूर्वज को ऐलेय के वंशज कैसे भूलते १ उन्होंने अप नाम के साथ प्रयुक्त होने वाले विरुदों में 'पेल' विरद को रक्खा। सम्राट् खारवेल के नाम के साथ 'ऐल' विरद का होना, उन्हें हरिवंशी प्रकट करने के लिए पर्याप्त है । तिस पर ऐल के शधरों ने ही चेदिराष्ट्र की स्थापना विन्ध्याचल के सन्नि Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) कट की और खारवेल ने अपने को 'चैदिवंशज लिखा ही है। अतः साहसी वीर ऐलेय के वंशधर सम्राट् ऐल खारवेल थे, यह स्पष्ट है। विन्ध्याचल के सन्निकट कौशला चेदिराष्ट्रकी राजधानी थी। वहीं से खाखेल के पूर्वज उस राज्य का सासन करते थे. किन्तु उनमें से क्षेमराज ने अन्तिम नन्दराज का हराकर कलिङ्ग पर अपना अधिकार जमा लिया और कुमारी पर्वत के निकट अपनी राजधानी बनाकर वह राज्य करने लगे। खाखेल रहीं के उत्तराधिकारी थे। वह कलिङ्ग के राजा थे और बाल्यकाल से ही साहस और विक्रम में अद्वितीय थे। राजनीति और धर्मशान में भी वह अनूठे थे। पञ्चीस वर्ष की नौजवानी में वह राजा हुये । अव उन्हें अपने पौरुप को प्रकट करने का चाव लगा। उन्होने भारत दिग्विजय की ठानली और निश्चय कर लिया कि मगध सम्राट को परारत करके उनसे अपने पूर्वजो का बदला चुकालें । चात यह थी, मगधराज ने पहले कलिग से उनके पूर्वजों को मार भगाया और कलिङ्ग की प्रसिद्ध जिन मूर्ति वह ले गया था। तब मगध में शुगवंशी राजाओं का अधिकार था। मगध के अपने पहले आक्रमण में खाखेल असफल रहे। वह रास्ते से ही वापस लौट आये और दूसरे आक्रमण की तैयारी में लग गये ! किन्तु मगध पर प्राकमण करने के पहले उन्होंने भूषिक, राष्ट्रीय क्षत्रियों और दक्षिणेश्वर शातकर्णि को युद्ध में परास्त Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करके अपना लोहा जमा लिया। फिर वह मगध राज्य में पहुँचे और वहाँ के प्रवल राजा को भी बात की यात में परास्त कर दिया। इसके बाद वह अपनी राजधानी को लौट आये। इस प्रकार प्रायः सम्पूर्ण भारत में उनके प्रभुत्व की छाप लग गई थी। ठेठ दक्षिण के पाण्डय चेर आदि राज्यों ने भी उनका आधिपत्य स्वीकार कर लिया था। यही पयों १ बल्कि उनके प्रभुत्व की धाक विदेशी शासक दिमत्रय पर भी ऐसी पड़ी कि वह अपना वोरिया वदना वॉध कर चम्पत हुना। अतः खाखेल भारत के सार्वभौम चमवर्ती और उद्धारक हो गये थे। उनके सग्राम-नैपुण्य और सैन्य-संचालन की दक्षता और शीघ्रता को देखकर विद्वान उन्हें भारतीय-नेपोलियन मानते हैं। और इसमें शक नहीं कि वह अपने इन गुणों में नेपोलियन से भी कुछ अधिक थे। इस नैपोलियन और भारतोद्धार को जन्म देने का सौभाग्य भी जैनधर्म को प्राप्तहै। सम्राट् खाखेल ने जो शौर्य भारत-विजय में प्रकट किया, वैसा ही पौरुप उन्होंने धर्म कार्य करने में दर्शाया। वह एक व्रती श्रावक थे और उन्होंने कुमारी पर्वत पर यम-नियमों के द्वारा व्रताचारण का अभ्यास करके भेद विशान को पा लिया था। उनकी दो रानिया थीं-(१) सिधुडा (२) वीजरघरवाली। यह भी उनकी तरह जैनधर्म की परमोपासक थी। इन सबने मिलकर कुमारीपर्वत पर अनेक जिनमन्दिर और जिनविम्ब दिगम्बर) प्रतिष्ठित कराये और जैनमुनियों के लिये अनेक Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) गुफायें बनवाई थी । किन्तु धर्म प्रभावना का यथार्थ कार्य खाखेल कुमारी पर्वत पर जैनसंघ को ऐकत्र करके जिनकल्याणकोत्सव मनाकर किया था उस समय जैनों के तीन प्रधान केन्द्र थे - ( १ ) मथुरा (२) (उज्जैनी (३) और गिरिनगर (जूनागढ़) इन केन्द्रों से प्रधान २ आचार्य वहाँ पहुँचे थे । तथापि देश के अन्य भागों से भी जैनी श्रावक और साधु एकत्र हुए थे। बड़ा आनन्द और समारोह हुआ था । इस साधु संघ ने लुप्तप्रायः अंग-ज्ञान में से 'विपाकसूत्र' के उद्धार' करने का प्रयत्न किया था । किन्तु अभाग्य से वह श्रव लुप्त हो रहा है। इसी समय देश के चारों कोनों में धर्मोपदेशक भेजकर खाखेल ने जैनधर्म की पूर्व प्रभावना की थी ! उपरान्त कुमारी पर्वत पर ही समाधिमरण करके वह स्वर्गधाम पधारे थे । भारतीय इतिहास में उनसे वीर वही हैं ! (ह) भारतीय विदेशी जैन वीर । जैन सम्राट् खाखेल के बाद दस-बीस वर्ष तक कोई प्रभाव शाली जैनराजा नहीं हुआ, परन्तु तो भी जैनों का प्राबल्य देश में क्षीण नहीं हुआ था । जैनाचार्य देश भर में विहार करके धर्म प्रचार कर रहे थे । किन्तु भारतीय राष्ट्र में आपसी ऐचतान के कारण ऐक्य नहीं था । इसका परिणाम यह हुआ कि Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) इसी के वंश में 'क्षत्रिय रुद्रसिंह' हुये थे। वह निस्सन्देह जैनभक्त थे। उन्होंने जूनागढ़ पर जैनों के लिए गुफायें और मठ वनवाये थे ! इस प्रकार जैनाचार्यों ने धर्म प्रभावना का वास्तविक रूप तव प्रगट कर दिया था ! इन यूनानी शक श्रादि जाति के शासकों को 'म्लेच्छ' कहकर अधृत नहीं करार दे दिया था: वल्कि उनको जैनी बनाकर धर्म की उन्नति होने दी थी ! यह जैनधर्म की वीर-शिक्षा का ही प्रभाव था कि जैनधर्म अपने प्रचार कार्य में सफल हुये थे। (१०) सम्राट विक्रमादित्य। सम्राट विक्रमादित्य हिन्दू संसार में प्रख्यात् हैं। पहले वह शैव थे। उपरान्त एक जैनाचार्य के उपदेश से वे जैनधर्म भुक्त हो गये थे। उनका समय सन् ५७ ई० पू० है और वह अपने सम्बत् के कारण बहु प्रसिद्ध है। अब इनके व्यक्तित्व को विद्वजन ऐतिहासिक स्वीकार करने लगे हैं और वे उनका महत्व शक लोगों को मार भगाने में बतलाते हैं। वात भी यही है! विक्रमादित्य मालवा के * इडियन एन्टीकरी भो० २० पृ ३६३ + काग्विज हिस्ट्री आल इण्डिया भो १ १६७-१६८ व पृष्ट ५३२ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) राजा गर्दभिल के पुत्र थे । शकनरेशों ने गर्दभिल्ल को परास्त कर दिया था । विक्रमादित्य प्रतिष्ठान में जा रहा था और वह श्रान्त्रवंश का राजा था। उसने शकों को हराकर अपने पैतृक राज्य पर अधिकार जमाया था । विक्रमादित्य सा न्यायी श्रोर पराक्रमी राजा होना, सुगम नहीं है ! outons ( ११ ) श्रन्ध्रवंशीय जैन वीर । देश में जैनधर्म का प्रचार मौर्यकाल से बहुत पहले होगया था। इसी वीर धर्म की आन्ध्र में प्रधानता होने के कारण, वहाँ अनेक शूरवीरों का प्रादुर्भाव हुआ था । श्रन्ध्रवंशी कई एक जैनधर्म के भक्त थे । सम्राट् 'शातकाणि द्वितीय अथवा पुणमायि' एक जैनवीर थे । इसी तरह इस वंश के हाल राजा का जैन होना सम्भव है । कहते है कि इन्होंने ही पुनः शको को भगा कर अपना 'सालिवाहन- सम्वत्' चलाया था । 'साल' और 'हाल' शब्द पर्यायवाची है । ("शाला हालो मत्स्यभ है" - हेमे अनेकार्थ कोष ) * स्टडीज इन साउथ इंडियन जैनीज्म, भा० २ पृ०२ 1 जैन साहित्य सशोधक भा० १ अंक ४ पृ२०८ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) (१२) वीर भवड़। मथुरा से उत्तरपूर्व की ओर पाञ्चालय राज्य था। इसकी राजधानी कांपिल्य थी। विक्रम की पहली शताब्दि में वहाँ तपन नामक राजा राज्य करता था। वीर भवरें इन्हीं के राज्य काल में हुये थे। वे एक प्रतिष्ठित जैन व्यापारी थे । इनका विवाह स्वयंवर की रीति से सुशीला नामक सेठ कन्या ले हुना था । वह सानन्द कालयापन कर रहे थे कि अचानक यवन लोगों का आक्रमण पाञ्चाल पर हुआ। यह आक्रमण सम्भवतः वादशाह महेन्द्र द्वारा हुआ था। भवड़ इस लड़ाई में बड़ी वहादुरी से लड़ा था; किन्तु आखिर वह कैद कर लिया गया। यवन लोग उसे अपने साथ तक्षशिला ले गये! किन्तु यह वीर वहाँ भी अपने धर्म का पालन करता रहा। आखिर धर्म प्रभाव से मुक्त होकर वह अपने देश को वापस चला आया। वज्रस्वामी के उपदेश से इसने शत्रुजय तीर्थ पर उत्सव रचा श्वेताम्बर सम्प्रदाय में यह वीर प्रसिद्ध है। (१३) जैन राजा पुष्पमित्र। सन् ४४५ ई० की बात है । गुप्तवंश के राजाओं की श्रीवृद्धि ** शत्रुजयमाहात्म्य । - - Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) का ज़माना था । स्कन्धगुप्त राज्य कर रहे थे। तव वुलन्दशहर के पास एक क्षत्रीवंश सन् ७ ई० से राज्य करता आ रहा था। और उस समय पुष्पमित्र राजा शासवाधिकारी थे। यह राजा अपने पूर्वजों की भान्ति एक भक्तवत्सल जैन था। स्कन्धगुप्त ने इस पर भी धावा बोल दिया। राजा बहादुरी के साथ लडा, परन्तु सम्राट् स्कन्धगुप्त के समक्ष वह टिक न सका (१४) गुजरात के वल्लभी राजा। . . ___ गुप्त राजाओं के बाद गुजरात में वल्लभी वंश के क्षत्री राजा अधिकारी हुए थे। इस वंश के कई वीर नरेश जैनधर्मानुयायी थे। पाँचवीं शताब्दि में राजा "शिलादित्य" ने जैनधर्म ग्रहण किया था। इनकी राजधानी का नाम, वज्ञभी था। इसीवंश के राजा "ध्र वसैन" प्रथम (५२६-५३५. ई०) के समय में श्वेताम्वराचार्य देवगिणि क्षमाश्रमण ने श्वेताम्बर आगम ग्रंथों को लिपिवद्ध किया था। इस वंश के बाद गुजरात में चालुक्य और राष्ट्रकूटवंशों ने राज्य किया। इन वंशों के जैनवीरों का उल्लेख हम आगे करेंगे। - * य० प्रा० जन स्मार्क पृ० १८७ ' ' Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) हैहय अथवा कलचूरि जैनवीर। हरिवंश भूषण जैनवीर अभिचन्द्र द्वारा स्थापित दिवंश की ही एक शाखा हैहय अथवा कलचुरि थी । वंश के मूल संस्थापक की भाँति इस शाखा के राजगण भी जैनधर्मानुयायो थे। विक्रम सं०५५० से ७६० तक इस शाखा के राजाओं का अधिकार चेदिराष्ट्र (बुन्देलखण्ड ) और लाट (गुजरात) में था । दक्षिण भारत में भी कलचूरि राजालोग सफल शासक थे और वहाँ जैनधर्म के लिए उन्होने बड़े-बड़े कार्य किये थे। इस वंश के एक राजा शङ्करगए थे। इनकी राजधानी जबलपुर जिले का तेवर (निपुरी) नगर था। यह जैनों में कुलपाक तीर्थ की स्थापना के कारण प्रसिद्ध हैं। किन्तु हैहयो में 'कर्णदेव राजा प्रख्यात् थे। यह पराक्रमी वीर थे। इन्होंने कई लड़ाइयाँ लड़ी थीं। मालवा के राजा भोज को इन्होंने परास्त किया था। गुजरात के राजा भीम से इनका मेल था। इनका विवाह हूणजाति (विदेशी) की पावन देवी से हुवा था !! गुजरात के चालुक्य योद्धा। गुजरात में सन् ६३४ से ७४० तक चालुक्य नरेश शासना *वम्दई प्रा० जनस्मार्क पृ०१३-१४ भारत के प्राचीन राज-कर मा० पृ०४८-५० Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) धिकारी रहे। इनके समय में जैनधर्म और साहित्य की विशेष उन्नति हुई थी ! इस वंश के राजा कीर्तिवर्मा 'विनयादित्य' 'विजयादित्य' और 'विक्रमादित्य' ने जैन संस्थाओं को दान दिया था। इनकी राजधानी बंकापुर जैनधर्म का केन्द्र था। वहाँ पॉच महाविद्यालयों की स्थापन हरिकेसरी देवने की थी किन्तु चालुक्यवंशमे 'सत्याश्रय पुलकेशी' द्वितीय के समान कोई भी प्रतापी राजा नहीं था। गुजरात के राष्ट्रकूट राजा। सन् ७४३ ई० से गुजरात में राष्ट्रकूट राजाओं का अधिकार होगया । इस वंश के राजाओं द्वारा जैनधर्म की विशेष प्रभावना हुई थी। 'प्रभूतवर्ष द्वितीय ने जैनगुरु अर्ककीर्ति को दान दिया था । 'कर्कप्रथम' (८१२-८२१) ने नौसारी के जैनमन्दिर को एक गॉव भेंट किया था। यह राजा वीरता में नाम पैदा करने के लिये किसी से पीछे नहीं रहे थे। सन् ६७२ ई० में गुजरात फिर चालुक्य राजाओं के अधिकार में चला गया था। इसही समय 'चावड़वंश का अधिकार भी गुजरात में रहा था। वनगज और योगराज प्रमृति राजा पराक्रमी थे। उन्होंने जैनधर्म को सहायता पहुँचाई और उसे धारण किया ।* *विशेष के लिये “जैनवीरो का इतिहास और हमारा पतन" देखिए, Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) सोलंकी-वीर-श्रावक! सन् ६७२ से चालुक्यों का अधिकार गुजरात पर होगया। यह. वंश 'सोलकी' कहलाता था। मूलराज, चामुड़, दुर्लभ, भीम, कर्ण, सिद्धराज, जयसिंह आदि इस वंश के प्रारम्भिक राजा थे और इन्होंने जैनधर्म के लिए अनेक कार्य किये थे और लड़ाइयाँ तो एक नही अनेक लड़ी थीं। किन्तु इनमें सम्राट “कुमारपाल' प्रसिद्ध वीर थे । यह , पहले शैव थे, परन्तु हेमचन्द्राचार्य के उपदेश से इन्होंने जैनधर्म धारण कर लिया था। अब सोचिये पाठक वृन्द, यदि जैनधर्म की अहिंसा कायरता की जननी होती तो क्या यह सम्भव था कि कुमारपाल जैसा सुभठ और पूर्व लिखित अन्य विदेशी लड़ाकू वीर उसे ग्रहण करते? कदापि नहीं। किन्तु यह तो जैन-अहिंसा का ही प्रभाष था कि वॉक वीरां ने उसकी छत्रछाया.आह्वाद और शौर्यवद्धक पाई। हॉ, तो सम्राट् कुमारपाल जैनी हो गये और इस पर भी उन्होंने बड़े-बड़े संग्रामों में अपना भुजविक्रम प्रकट किया। नागेन्द्रपतन के अधिपति कण्हदेव उनके बहनोई थे। कुमारपाल को राजा बनाने में इन्होंने पूरी सहायता की थी, क्योंकि सिद्धराज के कोई पुत्र नहीं था और कुमारपाल उनका भाग्नेय था। इस सहायता के कारण ही कराहदेव को कुछ न समझता था । और इसी उद्दण्डता के कारण कुमारपाल ने उसे यम Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) लोक भेज दिया था। इसके अतिरिक्त कुमारपाल को सपादलक्ष के राजा से भी लडाई लड़नी पड़ी थी। चन्द्रावती का सरदार विक्रमसिंह भी कुमारपाल के विरुद्ध खड़ा हुश्रा था, किन्तु रणक्षेत्र में कुमारपाल के समक्ष उसे मुंहकी खानी पड़ी। इसके बाद कुमारपाल दिग्विजय के लिए निकले और उन्होंने मालवा के राजा को प्राण-रहित करके वहाँ अपना यात जमा दिया। उपरान्त चित्तौड को जात कर, उन्होंने पञ्जाब और सिन्ध में अपना झण्डा फहराया। दक्षिण में फोहण प्रदेश को जीतने के लिए उन्होंने अपने सेनापति अम्बड़ को भेजा था, परन्तु वह वहाँ सफल न हुआ। इस कारण दूसरा थाक्रमण करना पड़ा और परिणाम स्वरूप कोकणप्रदेश सोलकी-साम्राज्य का एक अङ्ग बन गया । इस प्रकार जैन होने पर भी कुमारपाल ने अपनो साम्राज्यवृद्धि की थी। जैनधर्म की शरण में आने से कुमारपाल का वैयक्तिक जोवन एक नये ढाँचे में ढल गया था। जहां वह पहले नृशंसमांस-क्षक था, वहाँ वह अव दयालु और न्यायी निरामिष श्राहारी हो गया। जैनधर्म के संसर्ग से वह एक बड़ा हिंसक चीर बन गया । उसने जो युद्ध लडे, वह न्याय का पक्ष लेकर। तथापि उसने 'श्रमारीघोपं एवं अन्य प्रकार से अहिंसाधर्म का विशेष प्रचार किया। यद्यपि उसने प्राणदण्ड उठा दिया था, परन्तु जीवहत्या करने वाले के लिए वही दण्ड लागू रक्खा था। मद्य, मांस, जुश्रा, शिकार श्रादि दुर्व्यसनों को Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) इन राजाओं में 'वीर धवल' पराक्रमी राजा था। प्रख्यात् जैनवीर 'वस्तुपाल महान' इनके मन्त्री और सेनापति थे। वस्तुपाल के कनिष्ठभ्राता 'तेजपाल' थे। यह दोनों भ्राता उस समय जैनधर्म को नाक और बोले-राज्य की जान थे। वस्तुपाल के राज प्रवन्ध में राजा और प्रजा दोनों सुखी थे। एक प्रत्यक्ष दर्शक ने तय लिखा था कि "वस्तुपाल के राज प्रबन्ध में नीची श्रेणी के मनुष्यों ने घृणित उपायों द्वारा धनोपार्जन करना छोड़ दिया था। बदमाश उसके सम्मुख पीले पड़ जाते थे और भलेमानस खूब फलते फूलते थे। सब लोग अपने २ कार्यों को नेक नीयती और ईमानदारी से करते थे। वस्तुपाल ने लुटेरों का अन्त कर दिया और दूध की दुकानों के लिए चबूतरे बनवा दिये । पुरानी इमारतों का उन्होंने जीर्णोद्वार कराया, पेड़ जमवाये, घगीचे लगवाये, कुये खुदवाये और नगर को फिर से बनवाया। सव ही जाति-पांति के लोगों के साथ उन्हाने समानता का व्यवहार किया!" देश खूब समृद्धि दशा को पहुँचा । इसका प्रमाण वस्तुपाल और तेजपाल के बनवाये हुये श्रावू के अद्वितीय जैन मन्दिर हैं! राष्ट्रकी सेवा के साथ ही इन दोनों भाइयों ने जैनधर्म के उत्थान में अपनी सेवाओं का संकोच नहीं किया था। धर्म प्रभावना के उन्होंने एक नहीं अनेक कार्य किये थे। श्वेताम्बर होते हुये भी दिगम्बर जैनों को उन्होंने भुलाया नहीं था। वे अच्छे साहित्यरसिक और कवि थे, इस कारण साहित्य की उन्नति भी इस समय अच्छी हुई थी! Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) वस्तुपाल निर्भीक और निशङ्क एक थे । स्वयं राजा के चाचा को सज़ा देने में वह चूके न थे। बात यह थी कि राजा के चाचा सिंह ने एक जैनाचार्य का अपमान किया था । वस्तुपाल इस धर्म विद्रोह को सहन न कर सके। उन्होंने सिंह की उंगली कटवा दी । राजा उनके इस दुस्साहस पर खूब बिगड़ा परन्तु उसने इन्हें क्षमा कर दिया ! बताइये, धर्म के लिये यह कितना महान बलिदान था ! किन्तु श्राज जैनियों में कोई उनका एक पासग भी दीखता है ! नहीं; वस, यह भीरुता ही तो हमारे पतन का मुख्य कारण है । श्राश्रो, मेटो इस भीरुता को और फिर समाज में अनेक वस्तुपाल दिखाई पड़े, यह प्रयत्न करो ! - ( २० ) वीर सुहृद्ध्वज । मुसलमानों की सेना ने भारत में हाहाकार मचा दिया था। आगरा और श्रवध को वह फतह कर चुके थे । यह ११ वीं शताब्दी की घटना है । किन्तु मुसलमानों को अब आगे बढ़ जाना मुहाल हो गया था। इसकी एक वजह थी और वह वीर सुहृद्ध्वज के व्यक्तित्व में छिपी हुई है ! श्रावस्ती (सहेठ महेठ) में एक पुराने ज़माने से एक जैनधर्मानुयायी राजवंश राज्य करता श्रा रहा था ! सुहृद्ध्वज उसीवंश के अन्तिम राजा थे। जब उन्होंने सुना कि मुसलमान हिन्दुओं 1 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) को लूटते-खसोटते बड़े ताव से बढ़े चले श्रा रहे हैं, तो यह चुप न बैठ सके। उनकी नसों में रक्त उबल उठा ! जो कुछ सेना थी, उसे घटोर कर वह निकल पड़े हिन्दुओं की मान रक्षा के लिये । हाथली गाँव में मुसलमान सेनापति सैयद सालार से उनकी मुठभेडे हुई। बड़ा घमसान युद्ध हुआ और विजय श्री सुहध्वज के गले पडी ! मुसलमान अपना सा मुँह लेकर भाग गये ! हिन्दुओं की लाज रह गई, जैनवीर सुहृद्ध्वज के बाहुबल से । लोग बडे प्रसन्न हुये । किन्तु अभाग्य से सुहृध्वज अपने शील धर्म को गंवाने के कारण राज्य से भी हाथ धो बैठे। कुछ भी हो, उनका नाम तो भी एक 'हिन्दू-रक्षक' के नाते श्रमर है ! mog ( २१ ) चन्देले - जैनी - वीर । श्राला और ऊदल के नाम से हिन्दुओं का बच्चा-बच्चा परिचित है । चन्देले- वंश इन्हीं से गौरवान्वित है । सौभाग्यवशात् इस चन्देले वीर-कुल से जैनधर्म का सम्पर्क रहा है । चन्देरी में चन्देलों के राजमहल के निकट श्राज भी अनेक जैनमूर्तियां देखने को मिलती हैं। सन् १००० में यह राजवंश उन्नति की शिखर पर था। इस वंश में सब से प्रसिद्ध राजा Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) 'धग' (EYA-LEE) और 'कीर्तिवर्मा' (१०४६-११००) थे। राजा धन के राज्यकाल में जैनी उन्नति पर थे। खुजराहो में इन्हीं राजा से आदर प्राप्त सूर्यवंशी 'वीर पाहिल' ने सन् ६५४ में जिनमन्दिर को दान दिया था। किन्तु अभाग्यवश इन वीरो की कीर्तिगरिमा कराल काल के साथ विलुप्त होगई है। (२२) परमार वंशीय जैन-राजा। ' परमारवंश की नींव 'उपेन्द्र' नामक सरदार ने ई० नवी शताब्दि में डाली थी। कहते हैं इसीने प्रोसियापट्टन नगर वसाया था और वहाँ अपने वाहुवल से यह राज्य जमा बैठा था। जैनाचार्य के उपदेश से यह अन्य राजपूतों सहित जैनी हो गया था। श्रोसवाल जैनी अपने को इसी का वंशज बताते हैं। __ दशवीं शताब्दि में परमारों का श्राधिपत्य मध्यभारत में था और धारा उनकी राजधानी थी धारा के परमार राजाओं की छत्रछाया में जैनधर्म भी विशेष उन्नत था । प्रसिद्ध राजाभोज' इसी वंश में हुआ था। इसने अनेक जैनाचार्यों का आदर सत्कार किया था और कहते है कि अन्त में यह जैनी हो गया था। यह जितना ही विद्या-रसिक था, उतना ही वीर-पराक्रमी भी था। परमारवंश में राजा नरवर्मा भी प्रसिद्ध वीर थे। इन्होंने जैनाचार्य बल्लभसूरि के चरणों में सिर झुकाया था। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) (२३) कच्छप वीर विक्रमसिंह। राजा भोज के सामन्त कच्छपवंश ( कछवाहा ) के राजा अभिमन्यु चडोभनगर में राज्य करते थे। इनका नाती विक्रमसिंह था। उसने दुधकुण्ड के जैनमन्दिर को दान दिया था। इससे प्रगट है कि चोर कछवाहों के निकट भी जैनधर्म श्रादर पा चुका है। (२४) वीर राजा ईल। दशवीं शताब्दि के लगभग यद्रोडप्रान्त में ईल नामक राजा प्रसिद्ध होगया है। यह राजा जैनधर्मानुयायी था। ईलिचपुर नामक नगर इसी ने बसाया था। किन्तु मुसलमानों से अपने देश की रक्षा करता हुआ, यह वीरगति को प्राप्त छुआ था। (२५) भंजवंश के जैन राजा सन् १२०० ई० के ताम्रपत्रों से प्रगट है कि मयूरभक्ष (घगाल) के भंजवंश के राजाओं ने जैनमन्दिरों को बहुत से गाँव भेंट किये थे। इस वंश के संस्थापक वीरभद्र थे, जो एक Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) विशेष वर्णन "जैनचीरों का इतिहास और हमारा पतन" (पृ० १६-१०२) नामक पुस्तक में देखिये । (२७) हस्तिकुंडी के राठौड़ वीर। हस्तिकुण्डा (राजपूताना) में सन् ११६ ई० से 'विदग्धराज' राज्य करता था। यह राठौडवीर जैनधर्मानुयायी था । इसका पुत्र 'मम्मट' भी जैनधर्मभुक्त था। मम्मट का पुत्र 'धवल' पराक्रमी जैनराजा था। वह हस्तिकुरी के राठोडगंश का भूपण था । मेवाड पर जव मालवा के राजा मुअजे आक्रमण किया, तब यह उससे लडा था। सांभर के चौहान राजा दुर्लभराज से नाडोल के चौहानराजा महेन्द्र की इसने रक्षा फी थी। धरणीवराह को इसने आश्रय दिया था। सारांशतः धवल जैसे जैनवीर में यह परोपकार और साहसी वृत्ति होना स्वाभाविक था। जैनधर्म को भी इसने उन्नति की थी। (२८) जैनवीर कक्कुक। मंडोर ( राजपूताने ) में 'प्रतिहारश' के राजा राज्य करते थे। उनमें अन्तिम राजा 'कक' बड़ा पराक्रमी था। यह जैनधर्मानुयायी था। इसके दो शिलालेख वि० सं० ११८ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) के मिले है,जिन से प्रकट है कि "उसने अपने सच्चरित्र से मरु, माड़, वल, तमणी, अज (आर्य ) एवं गुर्जस्त्रा के लोगों का अनुराग प्राप्त किया, वड़णाणयमण्डल में पहाड़ पर की पल्लियों (पालों, भीलों के गाँवों) को जलाया, रोहित्सकूप (घटियाले) के निकट गाँव में हट्ट (हाट) बनवा कर महाजनों को वसवाया; और मंडोर तथा रोहित्सकूप गाँवों में जयस्थम्भ स्थापित किये । ककुक न्यायी, प्रजापालक एवं विद्वान् था।" (२६) मेवाड़ राज्य के वीर ! मेवाड़ के राणावंश की उत्पत्ति उसी वंश से है, जिसमें प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेव ने जन्म लिया था। श्रतः इस वंश से जैन धर्म का सम्पर्क होना स्वभाविक है। कर्नल टॉड सा० का कहना है कि राणावंश-गिल्होत कुल के श्रादि पुरुप जैनधर्म में दीक्षित थे। इस वंश में आज भी जैनधर्म को सम्मान प्राप्त है! राणाओं के सेनापति और राज मन्त्री होने का सौभाग्य कई एक जैनवीरों को प्राप्त था। उनमें भामाशाह' विशेष प्रसिद्ध हैं । इन्होंने महाराणा प्रताप की उस अटके में सहायता की थी, जब वह निरुपाय हो देश से मुख मोड़ कर चले थे। भामाशाह ने प्रताप के चरणों में अपनी अतुल धनराशि उलट Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) पड़ कर आज तुम्हारा आश्रय चाहता है, इसको आश्र दोइसको आश्रय देने से भगवान् के श्राशीर्वाद से तुम्हारे गौरव की वृद्धि होगी।" अाशाशाह ने माँ का कहना न दाला और निशङ्क होकर राजकुमार को अपने पास रख लिया ! इस प्रकार श्राशाशाह ने केवल मेवाड़ के राणाश को मिटने से बचाया, बल्कि हिन्दू पति वीर श्रेष्ट राणा प्रताप को जन्म देने का श्रेय भी उन्हीं को प्राप्त है ! श्राशाशाह और उसकी माँ की वीरता और स्वामी-भक्ति श्राज कहां देसने को मिलेगी! पर हाँ, वह मुर्दा दिलों में उत्साह की लहर उठाये विना न रहेगी! (३०) बीकानेर राज्य के जैन वीर । युवराज बीका ने जिस समय (सन् १४८८ ई० में) बीकानेर बसा कर अपने लिये एक नये राज्य की नींव डाली, तो चौहान वीर 'बच्छराज' भी उनके साथ था । वह भी सकुटुम्ब इस नये राज्य में आकर बस गया। यह जैनधर्मानुयायी था और दिलावर वीर था। राजकुमार बीकानेर का साथ इसने बरावर लड़ाइयों में दिया था। इस वीर पुरुष की स्मृति में ही बीकानेर के 'बच्छावत वंश' का जन्म हुआ था। - 'टाँढ कृत राजस्थान (व्यङ्कटेश्वर प्रेस) भा. १ पू. २७८ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५ ) घीकानेर की श्रीवृद्धि के साथ-साथ बच्छावतों का यश और प्रभाव भी घढ़ने लगा था। उन्हें बीकानेर राज्य की दीवान पदवी प्राप्त थी और उनमें ऐसे अनुभवी और विद्वान् नर- रत्न उत्पन्न हुए, जिन्होंने 'अपनी बुद्धि और कार्यकुशलता से फेवल राजकार्यों को ही नहीं किया, किन्तु सैनिक कार्यों में भी बड़ी प्रवीणता दिखलाई' । इनमें 'वरसिंह' और 'नगराज' दो प्रसिद्ध वीर थे । इन्होंने मुसलमानों से लड़ाइयाँ लड़ी थीं श्रीर जैनधर्म प्रभावना के अनेक काय किये थे । x x X इस वंश का अन्तिम महापुरुष 'करमचन्द्र' राव रायसिंह का दीवान था । जयपुर राज्य से हमने सन्धि करके बीकानेर राज्य की रक्षा की थी। किन्तु हठी और अपव्ययी रायसिंह ने राज्य के सच्चे हितेषी कर्मचन्द को नहीं पहचान पाया। कर्मचन्द की सुनीति पूर्व शिक्षा के कारण रायसिंह उससे रुष्ट हो गया और उसने उसे मरवा डालने का हुक्म चढा दिया । कर्मचन्द इस हुक्म की दर पाते ही दिल्ली भाग गया और कवर की शरण में जा रहा। अकबर का ध्यान जैनधर्म की श्रोर उसी ने आकर्षित किया । श्रकवर के कोपाध्यक्ष टोडरमल जी और दरवारी थिगेशाह भन्साली भी जैनी थे। इनके सहयोग को पाकर उसने बादशाह से जैनधर्म के लिए श्रनेक कार्य कराये थे । कर्मचन्द अपने दो पुत्रों भागचन्द और लक्ष्मीचन्द को छोड कर दिल्ली में ही स्वर्गवासी हो गया था । x x x Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ) थे। सन् १८०५ में इन्होंने भारी सरदार खान जान्ता खाँ को भटनेर के किले में घेर लिया। पांच महीने की लड़ाई के बाद ख़ान ने किला छोड़ दिया। महाराज ने प्रसन्न हो अमरचन्द्र को अपना दीवान नियुक्त कर लिया। सन् १८० में जोधपुर नरेश ने बीकानेर पर आक्रमण किया। श्रमरचन्द्र ही इस सेना से मोर्चा लेने गये । पपरी के मैदान में घोर युद्ध हुआ; किन्तु अन्त में सन्धि हो गई। (३१) जोधपुर राज्य के वीर-श्रावक । जोधपुर के राजवंश से जैनधर्म का सम्पर्क रहा है। प्राचीन राठौड़ वीरों ने जैनधर्म को खूब अपनाया था, किन्तु जोधपुर-वंश में वह धात तो नहीं पर हॉ, महाराज रायपाल जी-पुत्र 'मोहनजी' का सम्बन्ध जैनधर्म से प्रमाणित है। इन्होंने जैनसाधु शिवसेन के उपदेश से जैनधर्म ग्रहण कर लिया था और अपना दूसरा विवाह एक श्रोसवाल जैनकन्या से किया था। इन्हीं की सन्तान मोहणेत पोसवाल जैनी है । मोहणेत श्रोसवालों में 'कृष्णदासजी' उल्लेखनीय वीर थे। कहने को यह महाराज मानसिंह के मन्त्री थे, परन्तु सच ४ - - * विशेष के लिए देखो "जनवीरो का इतिहास और हमारा पतन ।' Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) पूछिये तो उस समय राज्य यही करते थे, क्योंकि मानसिंह तो अपने यवन स्वामियों की सेवा में व्यस्त रहते थे। इन्होंने नवाव अब्दुल्ला खाँ से युद्ध किया था। ।' भण्डारी वंश के जैन वीरों के मारवाड़ (जोधपुर ) राज्य सम्बन्धी सेवाओं का हम पहले ही उल्लेख कर चुके हैं। किन्तु मारवाड़ राज्य के दो जैन सेनापति प्रसिद्ध हैं ! ये है (१) इन्द्रराज और (१) धनराज ! ये दोनों वीर पोसवाल जाति के सिंघवी कुल में उत्पन्न हुये थे। इन्द्रराज ने धीकानेर और जयपुर राज्य से लड़ाइयां लड़ी थी! मारवाड़ के महाराज विजयसिंह ने सन् १७-७ में अजमेर को फिर मरहठों से जीत लिया, तो उन्होंने धनराज को वहाँ, का शासक नियुक्त कर दिया। किन्तु इस घटना के तीन-चार वर्ष बाद ही मरहठो ने अजमेर को फिर आ घेरा । मरहठों का जेनरल डीवॉमन नामक फ्रेञ्च सैनिक था। धनराज के पास यद्यपि थोडीसी सेना थी, किन्तु उन्होंने बड़ी चतुराई से शत्र का सामना किया। उधर विजयसिंह ने पाटन युद्ध के बुरे परिणाम के कारण यह हुक्म भेजा कि अजमेर छोड़ कर धनराज चले आयें! भला, एक वीर योद्धा क्या इस तरह शत्र को पीठ दिखा सकता था? कदापि नहीं! परन्तु धनराज राजा का भी उल्लवन नहीं करना चाहता था। श्रतः उसने अपने प्राणों को देश के नाम पर निछावर कर दिया और उसके Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) जैनधर्मानुयायी था। इस दीवान का नाम और काम आज अक्षातकाल महाराज की स्मृति में सुरक्षित है। (३४) धर्मवीर बाबू धर्मचन्द्रजी। कविधर वृन्दावन जी जैन समाज में प्रख्यात् हैं। आपके ही पिता बाबू धर्मचन्द्र जी थे। वह काशीजी में वावर शहीद की गली में रहते थे। बड़े भारी धर्मात्मा और गण्य-मान्य पुरुष थे। शरीरबल में काशी का कोई भी वीर उनका सामना नहीं कर पाता था। एक बार गोपालमन्दिर के अध्यक्ष जैनियों के पञ्चायती मन्दिर का मार्ग बन्द करने पर उतारू हो गये। रात भर में उन्होंने वहाँ एक दीवार खड़ी कर दी। जैनी दौड़े हुए बाबू जी के पास आये और वारदात कह सुनाई । उनका धार्मिक जोश उमड़ पड़ा। वह उठ खड़े हुए और जाकर देखा, डेढ़ श्रादमी के बराबर ऊंची दीवार खड़ी है। झट, छलांग मार कर वह उस पर चढ़ बैठे और लातों-घूसों से ही उसको चकनाचूर कर डाला । ब्राह्मण भी लाठियाँ लेकर उन पर टूट पड़े, पर धर्मचन्द्र जी भी तैयार थे। उन्होंने लाठी उठा कर उन्हें ललकारा! मारते खाँ का सामना करने को फिर भला कौन टिकता ? बावू जी ने अपने शौर्य से यह संकट पल भर में दूर कर दिया। धर्म के लिए मर मिटने की साध को ही Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) मानो उन्होंने अपने उदाहरण से हमारे सम्मुख उपस्थित कर दिया। (३५) दक्षिण भारत के जैनवीर। भगवान ऋपभदेव जी के पुत्र वाहुवलि' थे। उन्हें दक्षिण भारत का राज्य मिला था । पोदनपुर उनकी राजधानी थी। वह वॉके दिलावर वीर थे। 'सम्राट भरत' उनके सगे भाई थे, परन्तु उनका करद होना, उन्होंने क्षत्री पान के विरुद्ध समझा। भरत ने पोदनपुर को जा घेरा। दोनों ओर की सेनाएँ सजधज कर मैदान में प्रा डटी। युद्ध छिड़ने ही को था कि इसी समय राजमन्त्रियों की सुबुद्धि ने निरर्थक हिंसा को रोक दिया । मन्त्रियों ने कहा, राजकुमार परस्पर एक दूसरे के बलका अन्दाजा लगा ले, तो काम थोडे में ही निपट सकता है।' भरत ओर बाहुवलि को भी प्रजा का रक्त वहाना मंजूर न था। उन्हों ने मन्त्रियों की बात मान ली! प्रजा वत्सल वे दोनों नरेश असाडे में उतर पडे । मल युद्ध हुआ-नेत्र युद्ध हुआ'तलवार के हाथ निकाले गये पर किसी में भी भरत बाहुवलि को पगस्त न कर सके ! क्रोध में वह उवल उठे। भट अपना सुदर्शन चक्र भाई पर चला दिया। लेकिन वह भी कामयाव न हुश्रा | भरत को तरह क्रोध में वह अधा न था। कुल घात Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) अर्थात् ईसवी पूर्व आठवीं शताब्दि की बात है । उसमें यह भी लिखा है कि करकण्डु चम्पा का राजा था और उसने अपनी दिग्विजय में दक्षिण के इन राजवंशों से घोर युद्ध किया था; किन्तु जब उसे यह मालूम हुआ कि यह जैनी हैं, तो उसे घडा परिताप हुआ । उसने उनसे क्षमायाचना की और उनका राज्य घापस उन्हें सौंप दिया। श्रतः कहना होगा कि दक्षिण के चीरों ने जैनधर्म को कल्याणकारी जानकर एक प्राचीनकाल से उसे ग्रहण कर लिया था और कल तक वहॉ पर जैनवीरों का अस्तित्व मिलता रहा है । श्रव भला बताइये, इन श्रसंख्यात् वीरों का सामान्य उल्लेख भी इस निबन्ध में किया जाना कैसे सम्भव है ? किन्तु सुदामा जी के मुट्ठी भर तन्दुलवत् हम भी यहां थोड़े से ही सन्तोष कर लेंगे । २ - विन्ध्याचल पर्वत के उस ओर का भाग दक्षिण भारत हो समझा जाता है । ठेठ दक्षिण देश तो चोला पाण्ड्य, चेर यादि ही थे ! किन्तु श्रभाग्यवश उस समूचे देश का प्राचीन इतिहास श्रर्थात् सन् २२५ मे सन् ५५०ई० तक का इतिहास यज्ञात है । उपरान्त छठी शताब्दि के मध्य में हम वहां "चालुक्यों" को राज्य करते पाते हैं। चालुक्य राजवंश ने उत्तर से श्राकर द्रविड देश पर अधिकार जमा लिया था। इस वंश का संस्थापक "पुलकेशी प्रथम" था जिसने धीजापुर जिले के बादामी (वातापि) नगर को अपनी राजधानी बनाया था ! चालुक्यनरेशों के समय में जैन धर्म उन्नति पर था। इस Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) वंश में सत्याश्रय पुलिकेशी द्वितीय के समान प्रतापी राजा दूसरा नहीं था । ऐहोल के जैनमंदिर से इसका एक शिलालेख, मिला है । उसमें लिखा है कि 'महाराजाधिराज सत्याश्रय ने कौशल, मालवा, गुजरात, महाराष्ट्र, लाट, कोकण, काञ्ची श्रादि देशों को अपने राज्य में मिलाया था। मौर्य, पल्लव, चोल, केरल श्रादि राजाओं को पराजित किया था ! जिन राजाधिराज हर्प के पादपों में सैकड़ों राजा नमते थे, उनको भी इसने परास्त किया । राष्ट्रकूट राजा गोविन्द को भी इसने हराया ! इस महान् वीर का कृपापात्र कवि कालि दास की बराबरी करने वाला जैन कवि "रविकीर्ति" था । यद्यपि वी शताब्दि के मध्यभाग में राष्ट्रकूटों ने दक्षिण में चालुक्यों के राज्य की इति श्री कर दी थी, परन्तु दशमी शताब्दि के अंतिम भाग में चालुक्यों के तैल नामक राजा ने फिर उसकी जड़ जमा दी थी। इनमें "जयसिंह प्रथम " नामक राजा प्रसिद्ध है । बलिपुर में शान्तिनाथ भगवान की इसने प्रतिष्ठा कराई थी । जैनाचार्य वादिराज की इसने सेवा की थी । 1 ३ – राष्ट्रकूट राजवंश प्रारंभ से ही जैधर्म का संरक्षक रहा है । इस वंश के प्रायः सबही राजाओं ने जैनधर्म को अपनाते हुये देश के लिये ऐसे ऐसे कार्य किये हैं, कि उनके लिये स्वतः मस्तक नत हो जाता है । यहां पर हम इस वंश के प्रख्यात् राजा श्रमोगवर्ष का परिचय कराना ही पर्याप्त समझते हैं । "अमोघवर्ष" गोविन्द तृतीय के पुत्र थे । शायद इनका • Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ )' गोला में समाधिमर्ण किया । उपरान्त चालु का राज्याधिकारी हुये । चालुक्यों के समय में राष्ट्रकूट के वंशज उनके करद थे । यह 'सौन्दति के शासक' और जैनी थे । 'पृथ्वीराम, पिहुग, शान्ति वर्मा,' आदि इनके नाम थे और यह सामन्त कहलाते थे । उपरान्त इन्होंने 'वेणुग्राम' (बेलगाम) को अपनी राजधानी बनाया था। इन राह राजाओं ने सन् १२०८ में गोश्रा को अपने अधिकार में कर लिया था ! इन्होंने ही बेलगाम का किला बनवाया था । ४ - 'गङ्गवंश' के राजा मैसूर में ई० चौथो शताब्दि से ग्यारहवीं शताब्दि तक राज्य करते रहे। राष्ट्रकूटों को तरह यह भी जैनधर्म के बड़े भारी उपासक थे । राष्ट्रकूटों और गङ्ग राजाओं की घनिष्टता भी अधिक थी ! इनकी पहली राजधानी कोलार और फिर तलकाड थी। इस वंश की स्थापना जैनाचार्य " सहनन्दि" की सहायता से हुई थी । ददिग श्रौर माधव नामक दो राजकुवर दक्षिण की ओर भटकते २ पहुँचे । सिंहनन्दि जी से उनकी भेंट हो गई । श्राचार्य ने उन्हें अपनी शरण में ले लिया और उनसे कहा--"यदि तुम अपनी प्रतिज्ञा भङ्ग करोगे, यदि तुम जिन शासन से हटोगे, यदि तुम पर स्त्री को ग्रहण करोगे, यदि तुम मद्य व मांस खाओगे, यदि तुम अधर्मं का संसर्ग करोगे, यदि तुम श्रावश्यक्ता रखने वालों को दान न दोगे, और यदि तुम युद्ध में भाग जाओगे, तो तुम्हारा i , Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) घंश नष्ट हो जायगा।" ददिग और माधव ने जैनाचार्य को इस आशा को शिरोधार्य किया और उनकी कृपा से राज्याधिकारी बन गये । यह ईसवी दूसरी शताब्दि की घटना है और पाठवीं शताब्दि में यह राजवश उन्नति की शिखर पर , पहुँच गया था। - गढ़वंश में "मारसिंहाराजा" यहुत प्रसिद्ध था। यह बडा पराक्रमी और.वीर था । इसने राठौड़राजा कृष्णराज तृतीय के लिये उत्तर भारत के प्रदेश को विजय किया था, इसलिये यह गुर्जर राज भी कहलाता था । किरातो, मथुरा के राजाओं, यनवासी के अधिकारी श्रादि को इसने रणक्षेत्र में परास्त किया था। नीलाम्बर के राजाओ को नष्ट करने के कारण यह "योलम्बकुलांतक" कहलाता था । इस प्रकार रणबांकुरा होने के साथ ही यह एक धर्मात्मा नर रत्न था। जैनधर्म प्रभाव के लिये इसने कई स्थानों पर मन्दिरादि वनवाये थे। अन्त में इसने यंकापुर जाकर श्री अजित सेनाचार्य के चरणों का श्राश्रय लिया था और यहों समाधिमरण किया था । "रायमल्ल चतुर्थ" इसके उत्तराधिकारी और इन्हीं के समान पराक्रमी और धर्मात्मा राजा थे। ___ उपरोक्त दोनों गगनरेश के मंत्री और सेनापति “वीरवर चामुण्डराय थे। यह ब्रह्म-क्षत्र कुलके भूपण थे और अपने रणकोशल एक राजनीति के लिये अद्वितीय थे इनकी आयु का बहुत भाग रणक्षेत्र में ही पीता था, पर तो भी यह धर्म और Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) की खूब श्रीवृद्धिकी थी । यह " महामण्डलेश्वर, समाधिगत पञ्च महाशब्द, त्रिभुवनमल्ल द्वारावतीपुरवराधीश्वर यादवकुलाम्यर ध मणि, समयक्त्वचूडामणि, मलपरोन्गण्ड, तलकाडुकोद्ग-नङ्ग लि-कोट्लूर-उच्छ हि-नोलम्बवाडि-हानुगल- गोएड, भुजथल, वीरागद श्रादि प्रतापसूचक पदवियों के धारक थे ! इन्होंने इतने दुर्जय दुर्ग जीते, इतने नरेशों को पराजित किया घ इतने श्राश्रितों को उस पदों पर नियुक्त किया कि जिससे ह्मा भी चकित हो जाता है !" इनकी रानी शान्तल देवी भी परम जिन भक्त थी । " "जिस प्रकार इन्द्र का वज्र बलराम का हल, विष्णु का चक्र, शक्तिघर व अर्जुन का गाण्डघी, उसी प्रकार विष्णुवर्द्धन नरेश के "गगराज" सहायक थे !" गद्गराज इनके मंत्री और "सेनापति" थे । यह कॉडिन्य गोत्रधारी बुधमित्र के सुपुत्र थे और जैनों के मूलसंघ के प्रभावक थे। यहां तक कि धर्म क्षेत्र में इनका श्रासन चामुण्डराय से भी बड़ा चढ़ा है। इनकी निम्न उपाधियाँ इनके सुकृत्य और सुकीर्ति का खुले पृष्ठ की तरह उपस्थित करती है- 'समाधिगण पञ्ज महाशब्द, महासामन्ताधिपति, महाप्रचंड नायक, वैरिभयदायक, गोत्रपवित्र, बुधजनमित्र, श्री जैनधर्मा मृताम्बुधिप्रवर्द्धन सुधाकर, सम्यक्त्वरत्नाकर, श्राहार भयभैपस्यशास्त्रदान विनोद, मध्यजन हृदयप्रमोद, विष्णुभुवर्द्धनभूपाल होय्सल महाराजराज्याभिषेक पूर्णकुम्भ, धर्महम्योधरण मूलस्थ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) म्भ और द्रोहधरह ! अब बताइये इस पराक्रमी, धर्मिष्ठ और विद्वान् का परिचय इन पंक्तियों में कराया जाय तो कैसे। इनके चरित्र को बताने वाली एक स्वतंत्र पुस्तक ही लिखी जाय तो ठीक है ! 1 विष्णुवर्द्धन के उत्तराधिकारी उनके पुत्र "नरसिंहदेव " थे । इन्होने अच्छी दिग्विजय की थी और इस दिग्विजय के समय उन्होने श्रवणवल्लभ की यात्रा कर दान दे दिया था । इनके दाहिने हाथ "वीरहुलराज थे । यह हुल्ल वाजिवंश के यक्षराज, के पुत्र थे और नरसिंहदेव के प्रसिद्ध मंत्री और सेनापति थे । जैनधर्म प्रभावना में इनका नम्बर गङ्गराज से भी ऊँचा है । राज्यप्रबन्ध में वह 'योगन्धरायण' से भी अधिक कुशल और रा. नीति में वृहस्पति से भी अधिक प्रवीण थे ! बल्लल नरेश की राजसभा में भी वह विद्यमान थे। "जैनवीर रेचिमय्य इन राजाओं के सेनापति थे ! इन सबने देश और धर्म की प्रभावना की थी ! राचरस, भद्रादित्य, भरत, मरयिने आदि जैनवीर होय्सलराज्य में मंत्री शासक आदि रूप में नियुक्त हो जैनधर्म प्रभावना कर रहे थे । ६ - " कादम्गंशी" राजाओं का अधिकार दक्षिणभारत में चालुक्यों के साथ साथ था। वे वहां दक्षिण पश्चिम भाग में और मैसूर के उत्तर में राज्य करते थे। उनकी राजधानी उत्तर कनड़ा में वनवासी नामक नगर थी ! इस वंश के अधिकांश राजा जैनधर्म के बड़े प्रभावकर्ता थे ! चौथी शताब्दि के एक Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) जैनधर्म के लिये शासक बने और जैनधर्म के ही लिये वह न कहीं के होरहे । उनसे वही वीर थे ! ८ - 'शिलाहार वंश' के राजा लोग सम्भवतः चालुक्यों की छत्रछाया में राज्य करते थे । उनकी राजधानी कोल्हापुर में थी और यह जैनधर्म के अनन्य भक्त थे । इस वंश का पाँचवाँ राजा 'का' इतना प्रसिद्ध था कि उसका वर्णन श्रश्व इतिहासज्ञ मसूदी ने लिखा है । बारहवीं शताब्दि में इस वंश के राजा 'भोजद्वितीय' ने कलचूरियों से घोर युद्ध किया और बहमनी राजाओं के श्राने तक राज्य किया । इन राजाओं के धनाये हुए कई एक भव्य जैनमन्दिर श्राज भी मोजूद है । - पाण्ड्यवंश' के प्राचीन राजा जैनी थे, यह पहले किश्चित लिखा जा चुका है। यूनान देश के बादशाहों से इनका सम्पर्क था। ईस्वी दूसरी शताब्दि में एक पाण्डयराज ने अपने राजदूत बादशाह ऑगस्टस के पास भेजे थे। उनके साथ नग्न श्रमणाचार्य भी यूनान गये थे । इस उल्लेख से तत्कालीन राजा का जैन और प्रभावशाली होना प्रकट है । पाण्ड्यराजधानी मदुरा जैनों का केन्द्र था। चौथे पाण्डघराज 'उग्रपेरुवलूटी' ( सन् १२८ - १४० ) के राजदरवार में जैनाचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत प्रसिद्ध तामिल काव्य कुर्रुल पढ़ा गया था । पज्ञवराज महेन्द्रवर्म्मन् के समकालीन 'पाण्डयराज' भी जैन थे, किन्तु उनकी चीलरानी शेष थी । उसी के संसर्ग से वह शैव हो गये । उपरान्त सन् १२५० में वारकुर नगर के जैन 1 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३ ) राजा भूतलपांडय' जैनी थे। इस वंश के अन्य राजा भी जैन थे, जिनमें 'वीरपांडय' प्रसिद्ध है। इन्होंने सन् १४३१ में गोम्मटदेव की 'विशाल काय मूर्ति कारकल में स्थापित कराई थी। १०- 'चोलराजवंश' यद्यपि मूल में जैनधर्मानुयायी था, परन्तु उपरान्तकाल में यह इस धर्म से विमुख हो गया था। इतने पर भी जैनधर्म के उपासक इनसे यादर पाते रहे थे। कुर्ग व मैसूर के मध्यवर्ती प्रदेश पर राज्य' करने वाले 'चंगलचंशी राजा इनके श्राधीन थे, परन्तु वे पक्के जैनधर्मानुयायी थे। इनकी उपाधि महामडलीक मण्डलेश्वर थी। इनमें राजेन्द्र, मादेवना, कुलोत्तुन उदयादित्य आदि प्रसिद्ध राजा है। चोलों के अथक युद्ध में इन्होंने सदैव उनका साथ देकर अपना भुजविक्रम प्रकट किया था। ११-चोलों की प्राचीन राजधानी ओरदर में राज्य करने चालाकोंगल्वंश* भी जैनधर्मानुयायी था। 'वादिम', 'राजेन्द्रचोल पृथ्वीमहाराज', 'राजेन्द्रचोल कोगत्त', 'श्रदतरादित्य' और 'त्रिभुवनमल ये इस वंश के राजा थे। १२-चेरवंश' भी प्राचीनकाल से जैनधर्म का उपासक था। उपरान्तकाल में चेर (चीरा ) वंश के शासकों की राजधानी वान्जी थी। 'एलिन', 'राजराजव पेरुमल' इस चश के सम्भवत. इसी घंश को निमगुलवश भी कहते हैं। यह अपने को सूर्यघशी और फरिकाल घोल का वशन पंताता है।। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५) थी। इनकी उत्पत्ति उग्रवंश के जिनदत्तराय से कही जाती है। बाद में इनकी राजधानी कारकले में रही! बुजानन सा० लिखते हैं कि तुलुव के यह बलवान जैन राजा थे। । १७-'धरणीकोटा' के राजा भी जैनी थे। इनमें कोट 'भीमराय, 'फोट केतकराय श्रादि प्रसिद्ध थे। . . . . १-होटसल राजाओं को मुसलमानों ने सन् १३२६ मैं नष्ट कर दिया था। उस समय दक्षिण भारत में एक क्रान्ति सी मच गई थी और उसे क्रान्ति का ही परिणाम था कि 'विजयनगर साम्राज्य का जन्म हुआ। यद्यपि इस क्रान्ति में ब्राह्मणों का मुख्य हाथ था और इस कारण विजयनगर के राजाश्रों में उन्हीं की ज्यादा चलती थी, परन्तु तो भी इन राजाओं की जैनधर्म के प्रति सहानुभूति थी। इसका एक कारण था और वह यह कि उस समय हिन्दू -आर्यमान को संगठित होकर मुसलमानों को परास्त करना आवश्यक हो रहा था। इसी उद्देश्य को लक्ष्य कर विजयनगर के राजाओं ने जैनधर्म के प्रति सहानुभूति रक्खी और किन्हीं-किन्हीं ने उसे अपनाया भी। राजकुमार 'उग्र' जैनधर्म में दीक्षित हुप थे तथापि राजा 'देवगज द्वितीय ने विजयनगर में एक जैनमन्दिर धनधाया था। राजा हरिहर द्वितीय के सेनापति 'इरुगप्प जैनी' थे। उन्होंने अपने भुजविक्रम को प्रकट करते हुए जैन प्रभावना के अनेक कार्य किये थे। इन्हीं राजा के एक अन्य सेनापति सिरियरण के पुत्र 'वैचप्प' थे। उन्होंने काइण , Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) युद्ध में बड़ी बहादुरी दिखाई थी और उसी युद्ध में वह धीरगति को प्राप्त हुए थे, किन्तु मुसलमान भी फिर कोङ्कण, में अधिकारी न रह सके थे। यह वीर जैनधर्म के भक्त थे और इनका सचित्र वीरगल्. गोत्रा में मौजूद है। इसके साथ ही विजयनगर राज्य की छत्रछाया में. अन्य जैन राज्य भी फलेफूले थे। १६-किन्तु सन् १५६५ के युद्ध में मुसलमानों ने विजयनगर साम्राज्य को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इस समय प्रान्तीय जैन-शासक स्वतन्त्र हो गये थे। यह प्रधानतः तुलुवदेश में ही राज्य करते थे और इस प्रकार थे- .. ... (१) कारकल के भैरसू श्रोडियार, (२)-मूडविद्री के चौटर, (३) नन्दावार के बंगर, (४) अल्दनगड़ी के अल्दर, (५) चैलनगड़ी के भुतार और (६) मुल्की के सावनतूर। . . .. - जैनधर्म के पक्षपाती होने के कारण इन शासकों का युद्ध अन्य हिन्दू राजाओं से ठना ही रहता था। इनमें कई एक राजा बड़े पराक्रमी थे। . . . . ., - २०-"मैडूर के राजवंश" में भी जैनधर्मनुयायी अनेक वीर शासक हुये हैं । इनमें श्री चामराज, श्रोडयर, श्रीचिकदेवराय प्रोडयर, श्रीकृष्णराज श्रोडयर श्रादि. उल्लेखनीय हैं। इन्होंने जैनतीर्थ श्रवणवेलम्भ के लिए अनेक कार्य किए थे। वर्तमान मैसूर नरेश भी जैनधर्म से प्रेम रखते है। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( E) कलङ्क की बात है। जैन पुरण अर जैन इतिहास-तो अनेक वीरगनानी के श्रादर्श-चरित्रों से भरे पड़े हैं। उन्हें यहां दुहरानेके लिये न अवसर ही है और न पर्याप्त स्थान ! ईतने पर भी कुछ चमकती हुई वीराङ्गनाथ का उल्लेख कर देना अनुचित,न १- सम्राट "रवारवेल की पत्नी-वजिरि भृमि के क्षत्रीराजकी कन्या थीं । जिस समय खारवेल विजिर-राजा के वैरियों से घमासान युद्ध करते हुये बेहद आहत हो रहे थे और उनकी सेना के पाँव उखड़ रहे थे, उस समय इस राजकन्या ने अपनी सहेलियों के जत्थे के साथ शत्रु पर श्राक्रमण करके उसके छक्के छुटा दिये थे! खारवेल की विजय हुई शत्रु भाग गया ! अन्ततः उनका ध्याह खारवेल से हो गया और गजरानी होकर इन्होंने जैनधर्म के लिए अनेक कार्य किये! . २-"इचप्या सरदार की'.पोती ने विजयनगर के राजाओं से.स्वतंत्र हो जरसय्या में राज्य किया था। तब से यहां कई वर्षों तक नियॉ ही राज्य करती रही। ये सब जैनधर्म की परमभक्त थी सत्रहवीं शताब्दि के. प्रारम्भ में यहां की अंतिम - रानी "भैरवदेवी" राज्याधिकारी थीं इन पर वेदनूर के राजा वेङ्कटप्य नायक ने 'अाक्रमण किया। रानी बड़ी बहादुरी के साथ लड़ी और वीरगति को प्राप्त हुई ! 'कोमलाही ने अपना. सवला' नाम सार्थक कर दिया !, . . । ३-गजवंश में वीराङ्गना सावियचे प्रसिद्ध थीं। यह Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 8 ) सरदार वायक को कन्या थी। धोरा के पुत्र वीरवर लोकविद्याधर इनके पति थे। पतिदेव के प्रेम में सरवार वह वीराङ्गना भी उनके साथ समरभूमि में लड़ाई लडने गई। घोडे पर चढं कर और तलवार हाथ में लेकर उसने बडी बहादुरी दिखाई। यहाँ तक कि वैरियों के सरदार के हाथी, पर इसके घोडे ने जाकर टाप लगा दी। इसी समय शत्रु का घातकभाला उसके मर्मस्थल के प्रार-पार हो गया। वह वीराङ्गना झट सँभल गई और जिनेन्द्र भगवान का नाम जपती हुई स्वर्गधामको सिधार गई । उसके इस अमर कृत्य का दृश्य आज भी श्रवणवेलगोल के जैनमन्दिर में एक शिलापट पर अतित है, मानो वह अपनी बहिनों को वीरता और निशङ्कता का ही पाठ पढ़ा रहा है। ४-वस, आइये पाठक वृन्द, एक जैनवीराङ्गना के और दर्शन कर लीजिये । यह सरदार नागार्जुन की वीर पत्नी थीं। सरदार नालगोकंड का शासक था और एक पक्का जैनी था । भाग्यवशात् वह समाधिमरण कर गया। राजा अकाल' वर्ष ने उसका पद उसकी वीर पत्नी जक्रम को दे दिया। वह सुचारु रीति से शासन करने लगी। तब का शिलालेख कहता है कि 'यह बड़ी वीर थी, उतम युद्धशक्तियुक्ता थी और जिनेन्द्र-शासन भक्का थी।' अन्त समय के निकट में इसने अपनी पुत्री के सुपुर्द राज्य कर दिया और स्वयं एक जैनतीर्थ को जाकर शकान्द ८४० में समाधि ग्रहण कर ली। इन वीराङ्गनाओं के नाम और काम के आगे भला बताइये, Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार । J 'यः शस्त्रवृत्तिः समरे रिपुः स्यात्, यः कण्टेको वा निज मंडलस्य । अस्त्राणि तत्रैव नृपाः क्षिपन्ति, न "दीन - कानीनं - शुभाशयेषु ।' - श्री सोमदेवाचार्प ! 'वीरवरो, अपनी तलवार को वहीं संभालो जहां राहण में युद्ध करने को सम्मुख हों अथवा उन देश कंटकों को अपने रास्ते में से साफ कर दो, जो देश की उन्नति में बाधक हो ! 3 1 किन्तु खवरदार, यदि तुम वीर हो तो दीन, हीन, और साधुआशय वाले लोगों के प्रति कभी भी शस्त्र न उठान ।' यह श्रादेश: जैनाचार्य का है, और इसकी सार्थकता गत- पृष्ठों के अवलोकन से स्वयं स्पष्ट है। जैनराष्ट्र में इस सात्विक वीरवृत्ति, } का सर्वथा पालन होता रहा । जैनों ने कभी भी अन्धाधुन्ध 1 t निरर्थक हिंसा को नहीं अपनाया । उनको सयमी और करुणा मई वृत्ति ने भारतीय वीरों में इन्हें अग्रणी बना दिया। नहीं - भला बताइये, वह कौन था जिसने मानव समाज पर करुणा करके उसे सभ्य जीवन विताना सिखाया और श्रसि-मसि - कृषि आदि कर्मों की शिक्षा देकर भारतीयों को एक श्रादर्श - राष्ट्र में -- Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) संगठित किया ? क्या वह जैन तीर्थङ्कर भगवान ऋषभदेव नहीं थे? र देखिये, अन्याय का नाश करने के लिये और धर्म का प्रचार करने के लिये जिन वीरों ने दिग्विजय की: क्या वह जैनतीर्थङ्कर शान्ति-कुन्थ-अरह नहीं थे ? तिस पर श्रात्मवल में पूर्व प्रकाश प्रदीप्त करने वाले वीर-रत्न भी जैन धर्म में एक नहीं अनेक हुये ! हिन्दू राष्ट्र में जहां अहिंसात्मक सत्याग्रह द्वारा आत्मवल प्रकट करने का मात्र एक उदाहरण विश्वामित्र और वशिष्ठ के युद्ध में मिलता है; वहाँ जैन तीर्थङ्करों और महा पुरुषों के एक से अधिक चरित्र इस आदर्श को उपस्थित करते थे। भला कहिये, ये सत्याग्रही वीर उत्पन्न करके जैन धर्म ने भारत की उन्नति की या अवनति ? .. इतना ही क्यो? सोचिये तो सही, वह कौन थे जिन्होंने देश की जननी जन्मभूमि को स्वाधीन बनाये रखने के लिये बडे से बड़े दुश्मन का सामना किया ? भारत की सीमा पर अपने र जमाते हुये विदेशियों को किनने मार भगाया ? अरे, किन्होंने यह शिक्षा दी कि पराधीन होने से मर जाना अच्छा है-'जीवितात्तु पराधीनाजीवानां मरणं वरम्' ? 'क्या यह जैनाचार्य की उक्ति नहीं है ? फिर ज़रा बताइये कि देशोद्धारक श्रेणिक, नन्दिवर्द्धन, चन्द्रगुप्त श्रादि क्या जैन नहीं थे और हाँ जीते जी शत्रु के हवाले देश को न करने वाले वीर, धनराज भला कौन थे? वह जैन थे-हमारे ही भाई थे। किन्तु दुःख आज हम उन्हीं के अनुचर न कहीं के हैं। लोग हमें और हमारे Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) किन्तु शायद श्राप कहें - हमारे जैनी भाई कहें, यह क्षत्री वीरों की बातें हमें क्यो सुनाते हो ! हमारा काम तो रुपया कमाना और उससे धर्म का नाम करना है ! किन्तु वह भूलते हैं । जैनाचार्यों ने निशङ्क होने का उपदेश जैनी मात्र को दिया है और हमारे पहले के वैश्य-पूर्वज उसकी जीती-जागते मिसाल थे ! वणिक कुल दिवाकर भविष्यदा और जम्बूकुमार के चरित्र को क्या आप भूल गये ? और फिर वीर भामाशाह, श्राशाशाह, धनराज और धर्मचन्द्र क्या वैश्य नहीं थे ? उनके चरित्र पढ़िये और देखिये वह आपको क्या शिक्षा देते हैं ? धन खाने खरचने की वस्तु है-उससे धर्म का काम सघना सुगम नहीं है । धर्म तो श्रात्मबल प्रकट होने और उसका प्रभाव दिगन्तव्यापी बनाने में ही गर्भित है और यह तब ही संभव है, जव सत्य की निशङ्कभाव से श्राराधना की जाय । श्रतएव इन वीरों के चरित्र से अपने श्रात्म गौरवाश्चित होने देना - प्रत्येकजैन का कर्तव्य है । साथ ही हमारे जैन पाठक भी इन वीरों की आत्मकथाश्र से लाभ उठाने में पीछे न रहें । वह देखें भारत के रक्षक, भारत के नाम को दुनियां में चमकाने वाले और भारत पर अपना सब कुछ कुरवान करने वाले कितने श्रादर्श जैन वीर और वीरांगनायें हो चुकीं हैं । जैन धर्म' ने उन्हें कायर नही बनाया उनके श्रात्मवल को निस्तेज नहीं कर दिया, फिर श्राज यह कोई कैसे मानले कि जैन धर्म ने ही भारत को नामर्द 1 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) पना दिया है-उसका सत्यानाश कर दिया है ? सच पूछिये नो। 'किया इस देश को बरबाद, आपस की रुखाई ने । । । - दिलों में पैर पैदा कर दिया. अपनी पराई ने ॥ अतएव दूसरों को बदनाम करने और आपस में लडने के यजाय यदि संयम और सत्यता से वर्तना हम न भूलते तो पूर्वजों की गुणगरिमा से हाथ न धो बैठते ! जैन और हिन्दू चीरों ने नो आज नहीं-विजय नगर राज्य में ही प्रेम पूर्वक सहयोग द्वारा संगठन की नींव जमा दी थी! तय जैनधर्म और हिन्दूधर्म साथ साथ फले फूले थे। उन्हों ने एक काबिल दो जान हो कर देश र धर्म की रक्षा की थी! तबका राजधर्म यद्यपि वैष्णव था, परन्तु जैन धर्म को भी राजाश्रम [ मिला था। इस पारस्परिक आत्म विश्वास और सहयोग का ही परिणाम था कि सेनापति इस गप्प और वीरवर घेचप्प जैसे जैन धीरों ने देश और धर्म की रक्षा में अपने हिन्दू राजाओं का पूरा हाथ घटाया था। बचप्प ने तो देश की घलिवेदी पर अपने प्राणों को ही उत्सर्ग कर दिया था। किन्तु यह वीर तो अपने इस कर्तव्यपालन से अमर होगये और उन जैसे अन्य वीर भी अपनी कीर्ति को अमिट बना गये है, पर हॉ. हमें भी वह एक जीता जागता सन्देश दे गये है। वह सन्देश क्या है ? हम से न पूछिये । उनके जीवन चरित्रों को पढ़ कर स्वयं उनके सन्देश को समझ लीजिये और यदि उसे समझ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मित्रमंडल द्वारा प्रकाशित हिन्दी ट्रेक्ट। १ रेशम के वस्त्र-लेसक यावू जोतीप्रसाद देव यद २ घोर अत्याचार और उसका फल-ले० १० जुगलकिशोर मुक्तार ३ द्रव्य संग्रह-लेखक पं. गौरीलालजी ४ जैन मित्र मंडल का विवरण-मत्री ५. अहिंसा-लेखक ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी १६ जैनधर्म सिद्धान्त ही भूमंडल का सार्वजनिक धर्म सिद्धान्त हो सकता है-लेखक माईदयाल जैन थी ए, भानर्स मूल्य ॥ ७ रत्नकरण्ड श्रावकाचार पद्यानुवाद-40 गिरधर शर्मा नवरन । जैन मित्रमडल का इतिहास और कार्य विवरण-मत्री जैनधर्मप्रवेशका प्रथम भाग-लेखक सूरजभान फील ) १० मुक्ति और उसका साधन-अक्षाचारी शीतलप्रसादजी । ११ जिनेन्द्रमत दर्पण प्रथम भाग-लेखक पं० जुगलकिशोर मुख्तार १२ उपासनातत्व-- . . १३ मुक्ति-लेसक प० प्रभाचन्द्रजी न्यायतीर्थ । १४ पंचनत-लेखक बाबु भोलानाथजी मुख्तार १५ रलत्रय कुंज-बैरिस्टर चम्पतरायजी १६ शान सूर्योदय-या- सूरजभानजी वकील १७ जैनवीरों का इतिहास और हमारापतन-ले०अयोध्याप्रसादजी ।। १८ वीर जयन्ती उत्सव तथा मण्डल का विवरण २६२६ ॥ १६ वीर जयन्ती उत्सव तथा मण्डल का हिसाव १६३० २० जैनी कौन हो सकता है लेराफ पं० जुगलकिशोर मुख्तार २१ जैन वीरों का इतिहास-लेखक कामताप्रसादजी ) ___नोट-फ्री ट्रेक्ट या रिपोर्ट - आने के टिकट आने पर मुफ्त भेजी जा सकती है। मिलने का पताजैन मित्रमण्डल, धर्मपुरा देहली। " " Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मित्रमंडल द्वारा प्रकाशित उर्दू ट्रैक्ट । जैनधर्म परमात्मा जैन धर्म की अजमतं, } मेरी भावना मुफ्त ! भगवान महावीर '..-- सुबह,सादिक - जैनकर्म फ्लासफी सुख कहाँ है खुलासा मजाहिये ब्रह्मचर्य . T 1 30 ॥ हक़ीकृत दुनिया ji- भगवान महावीर और उनका 'शाहराहे निज़ात' मोह जाल "" नं०:२७, - 53 भगवान महावीर के जीवन अहिंसा धर्म पर हिली का की JI बाज | रिपोर्ट जलसा वीर जयन्ती -- मजमय दिल पंजीर जैनधर्म सिल्कसद जवापर आरजूय खरचाद गुलजार तखिल नयाव गोहर सप्तविशन ( हफ्तेअयूब ) ] क्या ईश्वर खालिक है. ॥ ज्ञान सूर्योदय दूसरा भाग -1 / कलामे पैका || : ॥ इलज़ाम हकीकते माद हयाते वीर.. 3 सहरे काजिव - जलवय कामिल ܐܐܐܨ J हुसने फितरत कारनेक हाते रिषभ تر Ju Ju 到 जैन धर्म जली है 刘 आजादे रियाजन १) सैंकड़ा 4 फ़राइजे इन्शानी J मिलने का पत्ता:जैन मित्रमण्डल, धर्मपुरा टेहली 1 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम और हमारे कार्य के बारे में कुछ सम्मतियां श्रीमान साहु श्रेयास प्रसाद जी जैन (ईस जीवामाद अह ३० एक 'मंडल कितनो उपयोगी संस्था है और यह जैन समाज की. : कितनी सेवा कर रही है, यह सबको विदित ही है इस कारण ' ज्यादा लिखना वृथा है।" 1 श्रीमान् ब्रह्मचारी पारसदास बामोड़ा, २६ मार्च ३१ + आप के भेजे हुये दोनों ट्रैक्ट आज आये ट्रेक्ट बहुत उपयोगी है, इनके पढ़ने से विदित हुआ कि जैन मित्रमंडल' निजी समय में उन्नति की है वह सराहनीय है वास्तविक ' निःस्वार्थ सेवाही से ऐसी उन्नति हो सकती है इस मित्रमंडल के कार्य कते यों को में हार्दिक धन्यवाद देना हुआ श्री १००८ श्री वीर भगवान ले यही प्रार्थना करता हूं कि आपकी सेवा सफल हो कर विश्व में फिर पूर्ववत् अहिसामय जैनधर्म 5 फहरावे ! I श्रीमान् ब्रह्मचारी दीपचंदजी वणी 35 कार्यश ू "का 37 मैं हर प्रकार से उत्सव को सफलना चाहता हूँ और इस जो सच्ची भावना होती है उसकी की अनुमोदन पॉलाल जी मिश्र प्रभाकर देवबन्द दिवांच आपका मण्डल अपनी शक्ति पर इस आवश्यकता की की इस कार्य में सफलता है प्रसिद्ध है भगवान कामना है, Page #92 -------------------------------------------------------------------------- _