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( ३० ) ठीक नहीं है। वह निस्सन्देह जैन थे। मेगस्थनीज़ भी उन्हें श्रमणोपासक (जैनमुनियों का भक्त ) प्रकट करता है। ।
चन्द्रगुप्त की तरह ही उनके पुत्र "विन्दुसार" और पौत्र अशोक जैनधर्म से प्रेम रखते थे। इन सम्राटों ने किस पराक्रम
और वीरता का परिचय दिया था, यह बात इतिहास-प्रेमियों से छिपी नह है। इन्होंने श्रवणवेलगोल (माईसूर ) में जाकर चन्द्रगुप्त की स्मृति में मन्दिर आदि निर्माण कराये थे, जो आज तक वहाँ विद्यमान हैं।।
इसके बाद मौर्यसम्राट "सम्प्रति" भी एक बॉके वीर और धर्मात्मा नर-रत्न प्रकट होते हैं। उन्होंने दक्षिण भारत-को विजय करके वहाँ आर्य संस्कृति और जैनधर्म का पुनरुद्धार किया था। नीच-ऊँच सव को जैनधर्म में दीक्षित करके अरबईरान आदि विदेशों में जैनधर्म का प्रचार किया था। इस तरह यह स्पष्ट है कि मौर्यकाल के अन्त समय तक जैनधर्म की प्रधानता मगधराजवंश में रही थी और मगध नरेश ही भारत के भाग्य-विधाता रहे थे। उनकी छत्रछाया में भारत का भाग्य अवश्य ही चमकता रहा। अब कहिये, क्या यह जैन-वीरता का प्रभाव नहीं था? प्रकट करने वाले हैं। इसी कारण हमने इस पुस्तिका में इसका उल्लेख 'मोटे तरीके से किया है।
जनरल आव दी रायल ऐशियाटिक सोसाइटी, भा०९ पृ० १७६ । मजैन शिलालेख संग्रह, भू० पृ०६५