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(४५) इन राजाओं में 'वीर धवल' पराक्रमी राजा था। प्रख्यात् जैनवीर 'वस्तुपाल महान' इनके मन्त्री और सेनापति थे। वस्तुपाल के कनिष्ठभ्राता 'तेजपाल' थे। यह दोनों भ्राता उस समय जैनधर्म को नाक और बोले-राज्य की जान थे। वस्तुपाल के राज प्रवन्ध में राजा और प्रजा दोनों सुखी थे। एक प्रत्यक्ष दर्शक ने तय लिखा था कि "वस्तुपाल के राज प्रबन्ध में नीची श्रेणी के मनुष्यों ने घृणित उपायों द्वारा धनोपार्जन करना छोड़ दिया था। बदमाश उसके सम्मुख पीले पड़ जाते थे और भलेमानस खूब फलते फूलते थे। सब लोग अपने २ कार्यों को नेक नीयती और ईमानदारी से करते थे। वस्तुपाल ने लुटेरों का अन्त कर दिया और दूध की दुकानों के लिए चबूतरे बनवा दिये । पुरानी इमारतों का उन्होंने जीर्णोद्वार कराया, पेड़ जमवाये, घगीचे लगवाये, कुये खुदवाये और नगर को फिर से बनवाया। सव ही जाति-पांति के लोगों के साथ उन्हाने समानता का व्यवहार किया!" देश खूब समृद्धि दशा को पहुँचा । इसका प्रमाण वस्तुपाल और तेजपाल के बनवाये हुये श्रावू के अद्वितीय जैन मन्दिर हैं! राष्ट्रकी सेवा के साथ ही इन दोनों भाइयों ने जैनधर्म के उत्थान में अपनी सेवाओं का संकोच नहीं किया था। धर्म प्रभावना के उन्होंने एक नहीं अनेक कार्य किये थे। श्वेताम्बर होते हुये भी दिगम्बर जैनों को उन्होंने भुलाया नहीं था। वे अच्छे साहित्यरसिक और कवि थे, इस कारण साहित्य की उन्नति भी इस समय अच्छी हुई थी!