Book Title: Jain Veero ka Itihas
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Jain Mitra Mandal

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Page 73
________________ ( ६३ ) अर्थात् ईसवी पूर्व आठवीं शताब्दि की बात है । उसमें यह भी लिखा है कि करकण्डु चम्पा का राजा था और उसने अपनी दिग्विजय में दक्षिण के इन राजवंशों से घोर युद्ध किया था; किन्तु जब उसे यह मालूम हुआ कि यह जैनी हैं, तो उसे घडा परिताप हुआ । उसने उनसे क्षमायाचना की और उनका राज्य घापस उन्हें सौंप दिया। श्रतः कहना होगा कि दक्षिण के चीरों ने जैनधर्म को कल्याणकारी जानकर एक प्राचीनकाल से उसे ग्रहण कर लिया था और कल तक वहॉ पर जैनवीरों का अस्तित्व मिलता रहा है । श्रव भला बताइये, इन श्रसंख्यात् वीरों का सामान्य उल्लेख भी इस निबन्ध में किया जाना कैसे सम्भव है ? किन्तु सुदामा जी के मुट्ठी भर तन्दुलवत् हम भी यहां थोड़े से ही सन्तोष कर लेंगे । २ - विन्ध्याचल पर्वत के उस ओर का भाग दक्षिण भारत हो समझा जाता है । ठेठ दक्षिण देश तो चोला पाण्ड्य, चेर यादि ही थे ! किन्तु श्रभाग्यवश उस समूचे देश का प्राचीन इतिहास श्रर्थात् सन् २२५ मे सन् ५५०ई० तक का इतिहास यज्ञात है । उपरान्त छठी शताब्दि के मध्य में हम वहां "चालुक्यों" को राज्य करते पाते हैं। चालुक्य राजवंश ने उत्तर से श्राकर द्रविड देश पर अधिकार जमा लिया था। इस वंश का संस्थापक "पुलकेशी प्रथम" था जिसने धीजापुर जिले के बादामी (वातापि) नगर को अपनी राजधानी बनाया था ! चालुक्यनरेशों के समय में जैन धर्म उन्नति पर था। इस

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