Book Title: Jain Veero ka Itihas
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Jain Mitra Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 78
________________ ( ७० ) म्भ और द्रोहधरह ! अब बताइये इस पराक्रमी, धर्मिष्ठ और विद्वान् का परिचय इन पंक्तियों में कराया जाय तो कैसे। इनके चरित्र को बताने वाली एक स्वतंत्र पुस्तक ही लिखी जाय तो ठीक है ! 1 विष्णुवर्द्धन के उत्तराधिकारी उनके पुत्र "नरसिंहदेव " थे । इन्होने अच्छी दिग्विजय की थी और इस दिग्विजय के समय उन्होने श्रवणवल्लभ की यात्रा कर दान दे दिया था । इनके दाहिने हाथ "वीरहुलराज थे । यह हुल्ल वाजिवंश के यक्षराज, के पुत्र थे और नरसिंहदेव के प्रसिद्ध मंत्री और सेनापति थे । जैनधर्म प्रभावना में इनका नम्बर गङ्गराज से भी ऊँचा है । राज्यप्रबन्ध में वह 'योगन्धरायण' से भी अधिक कुशल और रा. नीति में वृहस्पति से भी अधिक प्रवीण थे ! बल्लल नरेश की राजसभा में भी वह विद्यमान थे। "जैनवीर रेचिमय्य इन राजाओं के सेनापति थे ! इन सबने देश और धर्म की प्रभावना की थी ! राचरस, भद्रादित्य, भरत, मरयिने आदि जैनवीर होय्सलराज्य में मंत्री शासक आदि रूप में नियुक्त हो जैनधर्म प्रभावना कर रहे थे । ६ - " कादम्गंशी" राजाओं का अधिकार दक्षिणभारत में चालुक्यों के साथ साथ था। वे वहां दक्षिण पश्चिम भाग में और मैसूर के उत्तर में राज्य करते थे। उनकी राजधानी उत्तर कनड़ा में वनवासी नामक नगर थी ! इस वंश के अधिकांश राजा जैनधर्म के बड़े प्रभावकर्ता थे ! चौथी शताब्दि के एक

Loading...

Page Navigation
1 ... 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92