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किन्तु शायद श्राप कहें - हमारे जैनी भाई कहें, यह क्षत्री वीरों की बातें हमें क्यो सुनाते हो ! हमारा काम तो रुपया कमाना और उससे धर्म का नाम करना है ! किन्तु वह भूलते हैं । जैनाचार्यों ने निशङ्क होने का उपदेश जैनी मात्र को दिया है और हमारे पहले के वैश्य-पूर्वज उसकी जीती-जागते मिसाल थे ! वणिक कुल दिवाकर भविष्यदा और जम्बूकुमार के चरित्र को क्या आप भूल गये ? और फिर वीर भामाशाह, श्राशाशाह, धनराज और धर्मचन्द्र क्या वैश्य नहीं थे ? उनके चरित्र पढ़िये और देखिये वह आपको क्या शिक्षा देते हैं ? धन खाने खरचने की वस्तु है-उससे धर्म का काम सघना सुगम नहीं है । धर्म तो श्रात्मबल प्रकट होने और उसका प्रभाव दिगन्तव्यापी बनाने में ही गर्भित है और यह तब ही संभव है, जव सत्य की निशङ्कभाव से श्राराधना की जाय । श्रतएव इन वीरों के चरित्र से अपने श्रात्म गौरवाश्चित होने देना - प्रत्येकजैन का कर्तव्य है ।
साथ ही हमारे जैन पाठक भी इन वीरों की आत्मकथाश्र से लाभ उठाने में पीछे न रहें । वह देखें भारत के रक्षक, भारत के नाम को दुनियां में चमकाने वाले और भारत पर अपना सब कुछ कुरवान करने वाले कितने श्रादर्श जैन वीर और वीरांगनायें हो चुकीं हैं । जैन धर्म' ने उन्हें कायर नही बनाया उनके श्रात्मवल को निस्तेज नहीं कर दिया, फिर श्राज यह कोई कैसे मानले कि जैन धर्म ने ही भारत को नामर्द
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