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( ४ ) वह मनुष्य को सावधान कर देता है कि किस तरह की विजय उसे करनी है। इस विवेक को मनुष्य के हृदय में जागृत कर देने ही में उसका महत्व गर्भित है। अतः एक सनातन प्रकृतिमन्य अनुयायियों में से सफल विजयी-वीरों को गिना देना क्या सुगम है ? अस्तु,
अब यह तो जैनधर्म के नामकरण से ही स्पष्ट हो गया कि उसका वीरता से कितना घनिष्ट सम्बन्ध है। हमें उसके तात्विक स्वरूप में गहन प्रवेश करके शास्त्र-वाक्यों को उपस्थित करके यह सब कुछ सिद्ध करना अब कुछ आवश्यक नहीं ऊँचता। अब तो हमें केवल यह देखना है कि जैनधर्म किस प्रकार की विजय करने का उपदेश देता है। इसके लिए सब से पहले ज़रा देखिये कि उसमें जैनधर्म के मूल इष्ट-देव 'जिन' भगवान का क्या स्वरूप बतलाया है ? जैन शास्त्र कहते हैं कि "रागादि जेतृत्वाजिनः"-रागादि को जीतने वाला ही जिन है। इसलिये जैनधर्म में सब से बड़ा वीर वह है जो रागादि को जीत लेता है। ऐसे वीर जैनधर्म में अनादिकाल से होते आये हैं। इसलिये जैन वीरों के इतिहास का कोई एक ठीक प्रारम्भ मान लेना सुगम नहीं है। किन्तु, अपने सम्बन्ध को देखते हुए, हम जैनधर्म में माने हुए इस कल्यकाल से ही जैन वीरो के इतिहास पर एक दृष्टि डालेंगे।
किन्तु सच्चे वीर की उपरोक्त व्याख्या से शायद आप समझे कि जैनधर्म में केवल इन्द्रिय-विजय ही वीरता कही