________________
घोतक है--
'दण्डसाध्ये रिसावुपायान्तर मनायाहुति प्रदानमिन । यन्त्रशस्त्रनार प्रतीकारे व्याधौ कि नामान्योपध कुर्यात् ।।"
-युद्धसमुद्देश ३६-४० अर्थात्-'जो शत्रु केवल युद्ध करने से ही वश में श्रा सकता है, उसके लिए अन्य उपाय करना अग्नि में आहुति देने के समान है। जो व्याधि यन्त्र, शस्त्र या नार से ही दूर हो सकती है, उसके लिए और पया श्रापधि हो सकती है। इस का तात्पर्य ठीक वही है, जो हम ऊपर कह चुके है; तिस पर धर्म, सब और जाति-भाइयों पर आये हुए सङ्कट के निवारण के लिए अन्य उपायों के साथ 'श्रसिबल'-तलवार के जोर से काम लेने का खुला उपदेश 'पञ्चाध्यायी' के निम्न श्लोकों से स्पष्ट है
श्रादन्यतमस्योये रुद्दिष्टपु स दृष्टिमान् । मत्सु धोरोपसँगैषु तत्पर. स्यात्तदत्यये ।०८। यद्वा नधात्म सामर्थ यावन्मत्रासिकोकम ।
तावहाष्टु च श्रोतु च तब्दाचा सहतं न सः१८०९ । अर्थात-सिद्धपरमेष्टी, अतिविम्ब, जिन मन्दिर, चतुर्विधसत (मुनि, श्रार्यिका, श्रावक, श्राविका ) आदि में किसी एक पर भी आपत्ति श्राने से उसके दूर करने के लिए सम्यग्दृष्टि पुरुष (जैनी) का सदा तत्पर रहना चाहिये। अथवा जय तक अपनी सामर्थ्य है और जब तक मन्त्र, तल