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( २६ ) "नन्दिवर्द्धन" वस्तुतः एक पराक्रमी राजा था। वह अपनी माता की अपेक्षा लिच्छिवि वंश से सम्बन्धित था। मगध साम्राज्य पर उसने ४० वर्ष राज्य किया और इस (४४६-४08 ई० पू०) अवधि में उसने अवन्ति राज को परास्त किया, दक्षिण-पूर्व व पश्चिमीय समुद्रतटवर्ती देश जीते, उत्तर में हिमालय-वर्ती प्रदेशो पर विजय प्राप्त की और काश्मीर को भी अपने अधिकार में कर लिया । कलिङ्ग पर भी उसने धावा किया और उसमें भी सफल हुआ। इस विजय के उपलक्ष में वह कलिङ्ग से श्री पभदेव की मूर्ति पाटलिपुत्र ले श्राया था। किन्तु नन्दिवर्द्धन का महत्व श्रेणिक की तरह पारस्यराज्य का अन्त भारत से कर देने में गर्मित है। इस अन्तर में पारस्यनृप ने तक्षशिला के पास अपना पॉव जमा लिया था। परन्तु नन्दिवर्द्धन ने उसका अन्त करके भारत को पुनः स्वाधीन बना दिया और इस सुकार्य के लिए उनका नाम भारतीय इतिहास में अमर रहेगा।
नन्दिवर्धन के अनुरूप ही "महानन्द" और "महापद्म" भी पराक्रमी राजा थे। इन्होंने कौशाम्बी,श्रावस्ती, पाश्चाल, कुरु आदि देशों को जीत लिया था।
इनके वाद नव (नूतन) नन्दों में अन्तिम "नन्दराज" भी जैन थे। इनके महा अमरत्य राक्षस थे, जो जीवसिद्धि, नामक