Book Title: Jain Veero ka Itihas
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Jain Mitra Mandal

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Page 21
________________ साहित्य और प्रेस द्वारा प्रचार करके धर्म-प्रभावना करने का मूल्य ही नहीं मालूम है ! किन्तु रौभाग्य से अब हमारे उगते हुए समाज का ध्यान इस ओर गया है और वह अब इस टटोल में भी है कि हमारे पूर्वजों ने धर्म, देश और जाति के लिए कौन-कौन से कार्य किये १. इसी भावना का परिणाम है कि हमारे साहित्य में श्रव उन चमकते हुए वीर नर-रत्नों का प्रकाश प्रदीप्त हो चला है, जो अपनी सानी के अनूठे हैं। हमें विश्वास है, कि यह प्रकाश जमाने की उच्छ जलता की धजियां उड़ा देगा और जैन युवकों के हृदयों को पूर्वजो की गुण-गरिमा से चमका कर इतना प्रबल बना देगा कि फिर किसी को साहस ही न होगा कि वह जैनों और जैनधर्म को हेय भीरुता का आगार बता सके। 'जिन खोजा तिन पाइया' यह बिल्कुल सच है, किन्तु विरले ही खोज-खसोट करके सत्य को पाने का प्रयास करते "हैं। यही कारण है कि जैनधर्म के विषय में प्रमाणिक साहित्य सुलभ हो चलने पर भी लोग उसके विषय में सत्य को नहीं पा सके हैं। किन्तु अब उन्हें कान खोल कर सुन लेना चाहिये कि वह भारी गलती में है-नहा अन्धकार में पड़े हुए है। आर्य लोक में जैनी और जैनधर्म ने धर्म, देश और लोक के लिए इतनी लाजवाब कुरवानियां की है कि उनको उंगलियो पर गिना देना विल्कुल असम्भव है। इसका एक कारण है और वह यह कि जैनधर्म अपने प्रत्येक अनुयायी को वीर बनने

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