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होने दें। अच्छे विचारोको पैदा करें । ज्यो ही मन बुरे विचारोमें गोता लगावे, त्यो ही विवेकाकुगसे लाभ लें। और उस समय इस प्रकार विचार करें-"धिक् छि तुझे ऐसे नीचातिनीच अकृत्योमे प्रवृत्त होते शर्म आनी चाहिये। लोकमे जो तेरी थोडी-बहत प्रतिष्ठा है वह मारी मिट्टीमे मिल जायगी, फिर ऊंचा सिर करके नही चल सकेगा। परभवमे दुर्गतियोंके अनेक असह्य दुखोका सामना करना पडेगा, उनके शिकजेमें पडे विना नही रह सकेगा। रे मन | चेत | जरा चेत ।। इन बीभत्स अनर्थोमे मत जा, अपने स्वाभाविक स्वरूपको पहचान"। इस प्रकार मनसे बुरे विचारोको अपना (आत्माका) शत्रु समझकर हटाएं और आत्माको अध पतनसे रक्षित करे। महात्मा गांधीने इन जघन्य मनोवृत्तियोके दमन करनेके लिये एक बार महाभारतका सुन्दर चित्र खीचकर बतलाया था कि जब मेरे मनमे वरे विचार उत्पन्न होते है तब मैं उसका इस प्रकार दमन करता हूँ
"शरीरको तो कुरुक्षेत्र समझता और आत्माको अर्जुन, बुरे विचारोको कौरव और अच्छे विचारोको पाण्डव, तथा शुद्ध ज्ञानको कृष्ण । जब बुरे और अच्छे विचारोमे सघर्प होता है तब बुरे विचार अच्छे विचागेको घर दवाते है तव फौरन शुद्ध ज्ञानकी वृत्ति उदित होकर (श्रीकृष्ण) आत्मा (अर्जुन) को सचेत कर कहती है (स्वकर्तव्योपदेश देती है) कि हे आत्मन् (अर्जुन) तेरी विरक्ति (मौन) का समय नहीं है, यह तेरे कर्तव्य पालनका समय है। बुरे विचारो (कौरवो) को तू अपना दुश्मन समझ, उनको अब भाई मत समझो। जब वे (बुरे विचार) तेरे निर्दोष भाइयो (अच्छे विचारो) पर अत्याचारोके करनेपर उतारू हो गये है तब भ्रातृमोह कैसा? यह असामयिक वैराग्य कैमा ? अत अविलम्ब तुम कुरुक्षेत्र (शरीर) के मैदान में जमकर दुश्मन कौरवो (बरे विचारो) का सहार करो और अपने भाई-पाण्डवो (अच्छे विचारो) की रक्षा करके विजय प्राप्त करो एव ससारके सामने नीतिका आदर्श पेश करो। इस प्रकार बुरे विचारोका दमन किया करता हूँ।" यह महात्मा गाधीने मनको वशमे करनेके लिये कितना अच्छा चित्र खीचा है।)
इम प्रकार मनमें दो प्रकारको वृत्तियां (विचार) पैदा हुआ करती है-अच्छी और बुरी । जब मनमें बुरे विचार पैदा होते हैं तब मनरूपी राजा इन्द्रियरूपी सेनाको लेकर विपयरूपी युद्धस्थलमें आत्मारूपी शत्रुको पराजित कर गिरा देता है । देवसेनाचार्य आराधनासारमें कहते हैं
इदिय-सेणा पसरड मण-णरवइ-पेरिया ण सदेहो।
तम्हा मणसजमण खवएण य हवदि कायव्व ॥५८॥ अर्थात् मननपतिसे प्रेरित होकर इन्द्रियसेना विपयोमें प्रवृत्त होती है । इसमें किसी प्रकारका सदेह नही । अत पहले मनोनृपतिको ही रोकना आवश्यक है
मणणरवइणो मरणे मरति सेणाई इदियमयाइ । ताण मरणेण पुणो मरति णिस्सेसकम्माड ॥६०।। तेसि मरणे मुक्खो मुक्खे पावेइ सासय सुक्ख ।
इदियविसयविमुक्क तम्हा मणमारण कुणह ॥६१।। अर्थात् मननृपतिके मर जानेपर इद्रियसेना अपने आप मर जाती है अर्थात् फिर इन्द्रियां आत्माको विपयोमें पतित नही कर सकती। जैसे जली हुई रन्सी वन्धनस्प अर्थक्रिया नहीं कर सस्ती । इन्द्रियोके मर जानेपर नि दोप काँका नाग हो जाता है। वर्मासोंके नारा हो जानेपर मात्माको अपना सामाज्य (मोक्ष) मिल जाता है और उसके मिल जानेपर आत्मि-स्वाभाविक सम्पत्ति-अतीन्द्रिय गाश्वत सुम