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होगे, अपना समय पूरा करके चले जायेंगे। इससे हमें महान् दु ख होगा, आकुलता होगी, असतोष पैदा होगा । यदि हम इनको स्वयमेव छोड देंगे तो हमें सन्तोप-सुख मिलेगा और दुखोका शिकार नही होना पड़ेगा। कहा है।
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अवश्य यातारश्चिरतरमुषित्वाऽपि विषया वियोगे को भेदस्त्यजति न जनो यत्स्वयममून् । व्रजन्तः स्वातन्त्र्यादतुलपरितापाय मनस स्वयं त्यक्ता ह्येते शमसुखमनत विदधति ||
अत विषयवासनाका उच्छेद करना परमावश्यक है। 'न रहेगा वास न बजेगी बासुरी', 'जट ही नष्ट हो गई तो अकुर कैसा', 'स्रोत ही सुग्वा दिया जाय तो प्रवाह कैसा' ? हमारे मनमें वासनायें ही पैदा न होगी तो दुख कहाँसे होगा ? वासना के निवृत्त हो जानेपर जो उनकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करने थे, जो विकलता उठानी पडती थी, उन सबका अन्त हो जायेगा। फिर किमी भी बाह्य चीजकी अभिलाषा न होगी । अपने अन्तर्जगतमें छिपी चीजे (अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुखादि) प्रकट हो जावेंगी । आत्माकी ये ही स्वाभाविक एव वास्तविक विभूति हैं। जब तक आकुलता रहती है तभी तक अशान्ति और दु सका ताता है। जब आकुलता न रहेगी तब निराकुलतात्मक सुख एव शान्तिको पूर्ण व्यक्ति हो जायगी। ऐसी ही अवस्थाका नाम मोक्ष है । प० दौलतरामजीके ये शब्द मदा स्मरणीय हैं
आतमको हित है सुख, सो सुख आकुलता बिन कहिये । आकुलता शिवमाहिन, तातें शिवमग लाग्यो चहिये ॥
हुए भी दीक्षा लेनेके बाद
यदि हम विषय-वासना अन्तस्थल में घुसे तो कहना होगा कि विषय वासना ही ससार है और उस की विमुक्ति ही मुक्ति है । "वद्धो हि को यो विपयानुरागी, का वा विमुक्ति विषये विरक्त ।" अर्थात् बद्ध कौन है ? जो विषयो में आसक्त है। मुक्ति क्या है? विषयोंमें विरक्तता वही मुक्त है जो विषयोमें विरक्त है, उनमें आसक्त नही है । सम्राट् भरत पट्खड विभूतिका उपभोग करते अन्तर्मुहूर्त में केवली हो गये। अत निश्चित है कि आसक्ति ही वधका कारण है सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिकी क्रियायें एक होने पर भी मिथ्यादृष्टिकी क्रियायें बघका कारण है, सम्यग्दृष्टिकी नही, क्योकि मिथ्यादृष्टि जो क्रियायें करता है आसक्त (तन्मय) होकर करता है, सम्यग्दृष्टि नहीं। वह तो केवल पदस्थ कर्त्तव्य समझ कर करता है—
ज्ञानिनो ज्ञाननिर्वृत्ता सर्वे भावा भवन्ति हि । सर्वेऽप्यज्ञान निवृत्ता भवन्त्यज्ञानिनस्तु ते ॥
- समयसारकलश |
अब विचारता है कि वासनाका उच्छेद कैसे हो सकता है, क्योंकि मनले इच्छामोका हटाना हसीखेल नही है, टेढी खीर है । अपने-अपने विषयोके प्रति गमन करनेवाली इन्द्रियो और मनको उनसे हटाना, उनको काबू करना उसी प्रकार कठिन है जिस प्रकार जगत्को विध्वस करनेवाले उन्मन्त गजको वशमें करना है किन्तु विशेषज्ञोने जहाँ वासना-निवृत्तिका उपदेश दिया है वही मन और इन्द्रियोको स्वच्छन्द न होने देनेका सुगम सामन भी बतलाया है। ज्यों ही इन्द्रियो और मनपर आत्माका पूर्ण आधिपत्य होता जायगा त्यों ही वासनाओकी निवृत्ति होती चली जायगी । मनको काबू में कर लेनेपर इन्द्रियाँ अपने आप काबू में हो जायेंगी । मनको काबू में करनेका सरल उपाय यही है कि मनमें बुरे विचार कभी भी उत्पन्न न
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