Book Title: Jain Tattva Sara
Author(s): Kanhiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 12
________________ चारों घाति कर्मों का क्षय करने के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप रूप चार साधनाएँ हैं। मोक्षमार्ग के चार प्रकार हैं:- इनमें से सम्यग्दर्शन से दर्शनमोहनीय एवं दर्शनावरण कर्म का क्षय होकर क्षायिक सम्यक्त्व एवं अनंतदर्शन गुण प्रकट होता है। सम्यग्ज्ञान से ज्ञानावरण कर्म का क्षय होकर अनंत ज्ञान प्रकट होता है। सम्यकचारित्र से चारित्र मोहनीय कर्म का क्षय होकर क्षायिक चारित्र प्रकट होता है तथा इन सबके फलस्वरूप अंतराय कर्म का क्षय होकर अनंतदान, अनंतलाभ, अनंत भोग, अनन्त उपभोग एवं अनंतवीर्यरूप स्वाभाविक गुण प्रकट होते हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय इन चार घाती कर्मों का क्षय होने के पश्चात् वेदनीय कर्म, नाम कर्म, गोत्र कर्म और आयु कर्म ये चारों अघाती कर्म शेष रह जाते हैं। ये कर्म अघाती होने से जीव के किसी भी गुण का घात करने में समर्थ नहीं हैं। अतः इनका क्षय करने के प्रयत्न की आवश्यकता नहीं है। फिर भी इन कर्मों की शुभ-अशुभ, प्रशस्त-अप्रशस्त, प्रकृतियाँ है जिन्हें पुण्य-पाप प्रकृतियाँ कहा जाता है। इनमें से पुण्य-प्रकृतियों का क्षय किसी भी साधना से सम्भव नहीं है अपितु साधना से इन पुण्य-प्रकृतियों का अर्जन होता है, एवं इनके अनुभाग में वृद्धि होती है। अतः इनके क्षय की आवश्यकता भी नहीं है। शेष रही इनकी अशुभ-अप्रशस्त पाप प्रकृतियाँ। पाप प्रवृत्तियों के बंध का अवरोध कषाय की क्षीणता या क्षय से होता है। क्रोध कषाय (क्रूरता निर्दयता) के निवारण एवं क्षयोपशम से सातावेदनीय पुण्य प्रकृति का; मान कषाय के क्षयोपशम से, मद न करने से, मृदुता से उच्चगोत्र पुण्य-प्रकृति का; माया कषाय के क्षयोपशम से, ऋजुता से शुभ नामकर्म की पुण्य प्रकृतियों का; एवं लोभ कषाय के क्षयोपशम से देव, मनुष्य, आयु, पुण्य-प्रकृति का बंध होता है। साधना से कषाय क्षय होता है जिससे अघाती कर्मों की पाप प्रकृतियों के बंध का अवरोध होता है एवं पुण्य-प्रकृतियों का उपार्जन व उदय होता है। जिन साधकों ने साधना से चारों कषायों का पूर्ण क्षय कर दिया है उनके उपर्युक्त समस्त पुण्य-प्रकृतियों का अनुभाग बढ़कर उत्कृष्ट हो जाता है। ये शुभ (पुण्य) कर्म-प्रकृतियाँ आत्मा की शुद्धता की सूचक है। अतः इन्हें क्षय करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। जैनतत्त्व सार [ XI ]

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