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( ११ ) पृथ्वीकायादिकरूप जीव के विशेष किये, तब मनुष्य जीव है, नारको जीव है । इत्यादि प्रकार सहित उन्हे जीव की पहचान हुई । इस प्रकार व्यवहार विना (शरीर के सयोग विना) निश्चय के (आत्मा के) उपदेश का न होना जानना ।
प्रश्न २६-प्रश्न २५ में व्यवहारनय से शरीरादिक सहित जीव की पहचान कराई तब ऐसे व्यवहारनय को कैसे अगीकार नहीं करना चाहिए? सो समझाइए।
उत्तर-व्यवहारनय से नर-नारक आदि पर्याय ही को जीव कहा सो पर्याय ही को जीव नही मान लेना । वर्तमान पर्याय तो जीवपुदगल के सयोगरूप है । वहा निश्चय से जीव द्रव्य भिन्न है-उस ही को जीव मानना । जीव के सयोग से शरीरादिक को भी उपचार से जीव कहा सो कथनमात्र ही है । परमार्थ से शरीरादिक जीव होते नही, ऐसा ही श्रद्धान करना। इस प्रकार व्यवहारनय (शरीरादि वाला जीव) अगीकार करने योग्य नहीं है।
प्रश्न २७-व्यवहार बिना (भेद बिना) निश्चय का (अभेद आत्मा का) उपदेश कैसे नहीं होता? इस दूसरे प्रकार को समझाइये।
उत्तर-निश्चय से आत्मा अभेद वस्तु है। उसे जो नही पहचानते उनसे इसी प्रकार कहते रहे तो वे समझ नही पाये। तब उनको अभेद वस्तु मे भेद उत्पन्न करके ज्ञान-दर्शनादि गुण-पर्यायरूप जीव के विशेष किये। तव जानने वाला जीव है, देखने वाला जीव है। इत्यादि प्रकार सहित जीव की पहचान हुई । इस प्रकार भेद विना अभेद के उपदेश का न होना जानना ।
प्रश्न २८-प्रश्न २७ मे व्यवहारनय से ज्ञान-दर्शन भेद द्वारा जीव को पहचान कराई। तब ऐसे भेदरूप व्यवहारनय को कैसे अंगीकार नहीं करना चाहिये ? सो समझाइये।
उत्तर-अभेद आत्मा मे ज्ञान-दर्शनादि भेद किये सो उन्हें भेद ।