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( १३६ ) को प्राप्त करता है वहाँ निमित्त कौन है ? जिस प्रकार जहाज प्रवाह मे सहज ही बिना पवन के तैरता है। __भावार्थ-जीव और पुद्गल द्रव्य शुद्ध या अशुद्ध अवस्था मे स्वतन्त्र रूप से ही अपने मे परिणमन करते हैं। अज्ञानी जीव भी स्वतन्त्र रूप से निमित्ताधीन होकर परिणमन करता है, कोई निमित्त उसे आधीन नही कर सकता।
"उपादान विधि निर्वचन, हैं निमित्त उपदेश
बसे जु जैसे देश में कर सु तैसे भेष ॥" अर्थ-उपादान का कथन निर्वचन है, (अर्थात एक 'योग्यता द्वारा ही होता है) उपादान अपनी योग्यता से अनेक प्रकार से परिणमन करता है, तब उपस्थित निमित्त पर भिन्न-भिन्न कारणपने का आरोप (भेष) आता है, उपादान की विधि निर्वचन होने से निमित्त द्वारा यह कार्य हुआ ऐसा व्यवहार से कहा जाता है। ___ भावार्थ-उपादान जब जैसा कार्य करता है तब वैसे कारणपने का आरोप (भेष) निमित्त पर आता है। जैसे कि कोई वनकायवान मनुष्य सातवें नरकगति के योग्य मलीन भाव धारण करता है, तो वज्रकाय पर नरक के कारणपने का आरोप आता है, और यदि जीव मोक्ष के योग्य निर्मल भाव करता है तो उस वज्रकाय पर मोक्ष के कारणपने का आरोप आता है। इस प्रकार उपादान के कार्य अनुसार निमित्त मे कारणपने का भिन्न-भिन्न आरोप किया जाता है। इससे ऐसा सिद्ध होता है कि निमित्त से कार्य नही होता परन्तु कथन होता है, इसलिए उपादान सच्चा कारण है और निमित्त आरोपित कारण है। वास्तव मे तो निमित्त ऐसा प्रसिद्ध करता है कि-नैमित्तिक स्वतन्त्र अपने कारण से परिणमन कर रहा है, तो उपस्थित दूसरी अनुकूल वस्तु को निमित्त कहा जाता है।
प्रश्न २३-हम निमित्त मिलावें या नहीं ?